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________________ ऐतरेय आरण्यकमें प्राण-महिमा आचार्य विष्णुदत्त गर्ग 'ऐतरेयब्राह्मणेऽस्ति काण्डमारण्यकाभिधम् । अरण्य एव पाठ्यत्वात् आरण्यकमितीर्यते ॥' आरण्यक तथा उपनिषद् ब्राह्मणोंके परिशिष्ट ग्रन्थके समान हैं, जिनमें ब्राह्मण ग्रन्थोंके सामान्य प्रतिपाद्य विषयसे भिन्न विषयोंका प्रतिपादन सर्वत्र दृष्टि गोचर होता है। इनका मुख्य विषय यज्ञ नहीं, प्रत्युत यज्ञ-यागोंके भीतर विद्यमान आध्यात्मिक तथ्योंकी मीमांसा है। संहिताके मन्त्रोंमें जिस विद्याका सङ्केत मात्र उपलब्ध होता है, आरण्यकोंमें उन्हीं बीजोंका पल्लवन है । चारों वेदोंसे सम्बद्ध जैसे अलग अलग सबके ब्राह्मण ग्रन्थ है वैसे ही उनपर आश्रीयमाण आरण्यक भी। एतरेय आरण्यक ऋग्वेदके आरण्यकोंमें अन्यतर है, जो ऐतरेय ब्राह्मणका ही परिशिष्ट भाग है। इसमें ५ पांच भाग है जो विषय-विभाग व सम्प्रदाय भेदसे पृथक्पृथक् ग्रन्थके रूपमें माने जाते हैं। तथाहि 'तत्र गवामयनमित्याख्यस्य संवत्सरात्मकसत्रस्य शेषो महाव्रतनामकं कर्म प्रथमारण्यकस्य विपयः। द्वितीयस्य तृतीयस्य चारण्यकस्य ज्ञानकाण्डं विषयः । चतुर्थारण्यकेऽरण्याध्ययनार्थाः 'विदामघवन्' महानाम्न्याख्यायमन्त्राः प्रोच्यन्ते । पञ्चमे त्वारण्यके महाव्रताख्यकर्मण एव प्रयोग उच्यते । तदेवमैतरेयारण्यके प्रथमं चतुर्थं पञ्चमं चारण्यकं कर्मपरम्, द्वितीयं तृतीयं च ज्ञानकाण्डमित्यवसीयते ।' वैसे तो इसमें वाणी एवं मनके स्वरूप व उसकी महिमा, स्वाध्याय धर्म व अध्यापन नियम, मानव जीवनके आदर्श उद्देश्य, राजनीति, यज्ञ, चन्द्रमा-आदित्य-प्रजापति-वरुण आदि देवोंका वर्णन, स्वर्गादिलोकों की कल्पना, अन्न, ऋतु, ओषधि, वनस्पतियोंका वर्णन, मनुष्य, पशु आदिके स्वभावका वर्णन, अध्यात्म-विद्या व ब्रह्मविद्याका निरूपण, जैसे विविध विषयोंका विवेचन किया गया है किन्तु द्वितीय प्रपाठकके प्रथम तीन अध्यायोंमें उक्थ या निष्केवल्य शस्त्र तथा प्राण विद्या और पुरुषका जो व्याख्यान है, वह सर्वथा स्पृहणीय है। इन सबमें प्राणविद्याका महत्त्व आरण्यकका विशिष्ट विषय प्रतीत होता है। अरण्यका शान्त वातावरण इस विद्याकी उपासनाके लिए नितान्त उपादेय है। इस प्रकार आरण्यक न केवल प्राण-विद्याको अपनी अनोखी सूझ बतलाते हैं, अपितु ऋग्वेदके मन्त्रों को भी अपनी पुष्टिमें उद्धृत करते हैं, जिससे प्राण विद्याकी दीर्घ कालीन परम्पराका इतिहास मिलता है। किम्बहुना 'प्राणेनेमं लोकं सन्तनोति ।"प्राणेनान्तरिक्षलोक सन्तनोति ।"प्राणेन अमुं लोकं सन्तनोति ।' (ऐ० आ० ११४।३।) प्राणकी महिमासे हो लोकत्रयका विस्तार होता है । सब इन्द्रियोंमें प्राणोंकी १. अपश्य गोपामनिपद्यमाननमा च परां च पृथिभिश्चर॑न्तम् । स सघ्रीचीः स विषू'चीर्वानआ वरीवति भुवनेष्वन्तः ॥ऋ० १।१६४।३१ अपाङ् प्राति स्वधा गृभीतोऽमो मत्येंना सोनिः । ता शश्व॑न्ता विषूचीन वियन्ता न्यऽन्यं चिक्युर्ननिचिक्युरन्यम् ॥ऋ० १।१६४।३८ २६८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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