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________________ उच्च मतआदर्श' है। ये तीनों आत्माको अवस्थाएँ हैं जहाँ जीव विभिन्न भूमिकाओंपर स्थित होता है। बहिरात्मा आत्म-ज्ञानसे पराङ्मुख होता है। और शरीरादिमें ही आत्म-तत्त्वका अध्यवसाय करता रहता है तथा कार्मण शरीर रूपी काँचलीसे ढके हए ज्ञान रूपी शरीरको नहीं पहचानता। इसका परिणाम यह होता है कि मित्रादिकोंके वियोगकी आशंका करता हुआ अपने मरणसे अत्यन्त डरता रहता है। बहिरात्मा कठोर तप करके भी अपने लक्ष्यको प्राप्त नहीं कर सकता। यद्यपि पांचों इन्द्रियोंके विषयोंमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो आत्माका भला करनेवाला हो तथापि यह अज्ञानी बहिरात्मा अज्ञानके वशीभूत होकर इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त रहता है और तप करके सुन्दर शरीर और उत्तमोत्तम स्वर्गके विषय भोगोंकी इच्छा करता है। उपर्युक्त कारणोंसे बहिरात्मावस्था उच्चतम आदर्शकी प्राप्तिमें बाधक है अतः त्याज्य है। इसके विपरीत अन्तरात्मा आत्मा और शरीरमें विवेक बुद्धि उत्पन्न करता है । अतः शरीरके विनाशको तथा उसकी विभिन्न अवस्थाओंको आत्मासे भिन्न मानता है और मरणके अवसरपर एक वस्त्रको छोड़कर दूसरा वस्त्र ग्रहण करनेकी तरह निर्भय रहता है। इसका परिणाम यह होता है कि वह आत्माको ही निवास स्थान मानता है। अन्तरात्म वृत्तिके कारण ही आत्मा अपने आदर्शकी ओर बढ़ने में समर्थ होता है। परमात्मा सम्पूर्ण दोषोंसे रहित और केवल-ज्ञानादि परम वैभवसे संयुक्त होता है। वह जन्म, जरा, मर अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख आदिका अनुभव करनेवाला तथा अविनाशी होता है। परमात्म अवस्था ही निर्वाण अवस्था है, जहाँ न दुख है न सुख, न पीड़ा न बाधा, न निद्रा न क्षुधा, न पुण्य न पाप । वह तो अतीन्द्रिय, अनुपम, नित्य अचल और निरालम्ब अवस्था है। तृतीय; अशुभ और शुभ उपयोगको छोड़कर शुद्धोपयोगकी प्राप्तिको उच्चतम आदर्श स्वीकार किया गया है । जब जीव नैतिक और आध्यात्मिक क्रियाओंमें रत रहता है तो शुभोपयोगी होता है किन्तु जब वह हिंसादि अशुभ कार्यों में रत रहता है तो वह अशुभोपयोगी कहा जाता है। ये दोनों उपयोग कर्मके कारण जीवमें उत्पन्न होते हैं और ये जीवको अनन्त संसारमें परिभ्रमण कराते रहते हैं। अतः ये उपयोग मनुष्य जीवनके आदर्श नहीं बन सकते । जब तक जीव अपनी शक्तिको इन दोनों उपयोगोंमें लगाता रहता है तब तक वह अपने आदर्शसे कोसों दूर रहता है। परन्तु ज्योंही इन दोनों उपयोगोंको जीव त्यागता है त्योंही वह शुद्धोपयोग ग्रहण कर लेता है। दूसरे शब्दोंमें इस प्रकार कहा जा सकता है कि जैसे ही शुद्धोपयोगका अनुभव हुआ, वैसे ही जीवसे अशुभ और शुभ उपयोग विदा हो जाते हैं। वह शुद्धोपयोगी जीव एक ऐसे १. मोक्ष पाहुड ४,७। २. समाधिशतक ७१,६८। ३. वही ७६ । ४. वही ४१ । ५. वही ४२,५५ । ६. वही ७७ । ७. वही ७३ । ८. नियमसार ७। ९. नियमसार १७९,१८० । १०. नियमसार १७८ । ३४ विविध : २६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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