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________________ दूसरा वैधयं । साधर्म्यका अर्थ अन्वय है और वैधयंका व्यतिरेक । साधर्म्य और वैधर्म्य अनुमेयसिद्धिमें हेतुके निर्दोषत्वको पुष्टकर उसे साधक बनाते हैं। व्याख्याकार वात्स्यायन' और उद्योतकरने इन दोनों प्रयोगोंका समर्थन किया है । इन ताकिकोंके मतानुसार हेतुको साध्य (पक्ष) में तो रहना ही चाहिए, साधर्म्य उदाहरण (सपक्ष) में साध्यके साथ विद्यमान और वैधर्म्य उदाहरण (विपक्ष) में साध्याभावके साथ अविद्यमान भी होना चाहिए । फलतः हेतुको त्रिरूप होना आवश्यक है। काश्यप (कणाद) और उनके व्याख्याता प्रशस्तपादका भी मत है कि जो अनुमेय (साध्य) के साथ सम्बद्ध है, अनुमेयने अन्वित (साधर्म्य उदाहरण-सपक्ष) में प्रसिद्ध है और उसके अभाव (वैधर्म्य उदाहरण-विपक्ष) में नहीं रहता वह हेतु है । ऐसा त्रिरूप हेतु अनुमेयका अनुमापक होता है । इससे विपरीत अहेतु (हेत्वाभास) है और वह अनुमेयको नहीं साधता । बौध ताकिक न्याय प्रवेशकार भी त्रिरूप हेतुके प्रयोगको ही अनुमेयका साधक बतलाते हैं। धर्मकीति,६ धर्मोत्तर आदिने उनका समर्थन किया है। सांख्य विद्वान् माठरने भी त्रिरूप हेतुपर बल दिया है। इस प्रकार नैयायिक, वैशेषिक, बौद्ध और सांख्य ताकिक हेतुको त्रिरूप मानते हैं। तर्क-ग्रन्थोंमें त्रिरूप हेतुके अतिरिक्त द्विरूप, चतुःरूप, पञ्चरूप, षड्रूप और सप्तरूप हेतुकी भी मान्यताएँ मिलती हैं। द्विरूप, चतु:रूप और पञ्चरूप हेतुका उल्लेख उद्योतकर, वाचस्पति और जयन्त भट्टने" किया और उनका सम्पोषण किया है। इससे ज्ञात होता है कि उक्त त्रिरूप हेतुकी मान्यताके अलावा ये मान्यताएं भी नैयायिकोंके यहाँ रही हैं । षडुरूप हेतुका धर्मकीर्तिने १२ और सप्तरूपका वादिराजने'3 सूचन किया है। पर वे उनकी मान्यताएँ नहीं हैं। उन्होंने उनका केवल समालोचनार्थ उल्लेख किया है। फिर भी इतना तो तथ्य है कि ये भी किन्हीं ताकिकोंकी मान्यताएं रही होंगी। जैन तार्किकोंका हेतु-प्रयोग जैन तार्किकोंने केवल एक अविनाभावरूप हेतुको स्वीकार किया है। उनका मत है कि हेतुको साध्याविनाभावी होना चाहिए-उसे, जिसे सिद्ध करना है उसके अभावमें नहीं होना चाहिए, उसके १. न्यायभा० ११११३४, ३५ । २. न्यायवा० १।११३४, ३५, पृ० ११८-१३४ । ३. ४. प्रश० भा०, पृ० १००। ५. न्याय प्र०, पृ० १ । ६. न्याय बि०, पृ० २२, २३; हेतु बि०, पृ० ५२ । ७. न्याय बि० टी०, पृ० २२, २३ । ८. सांख्यका० माठरवृ० का० ५। ९. न्यायवा० १११।३४; पृ० ११९ । वही ११११५, पृ० ४६ तथा ४९ । १०. न्यायवा० ता० टी० ११११५; पु० १७४ । ११. न्यायकलिका पृ० १४ । १२. हेतुबिन्दु पृ० ६८। १३. न्याय वि० वि० २।१४५, पृ० १७८-१८० । २६० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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