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________________ के सम्पादक थे। प्राप्त हुई नकल बहुत ही अशुद्ध थी फिर भी यह व्यर्थ ही नष्ट न हो जाय अतः इन्होंने गुजरात शालापत्रके सन् १८७७-७८ के अंकों में इसे क्रमशः प्रकाशित कर दिया। तत्पश्चात् गुजरात और राजस्थानमें विभिन्न स्थानोंसे इसकी अन्य हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध होती गई हैं। ‘कान्हड़देप्रबन्ध' का प्रथम बार व्यवस्थित सम्पादन श्री डाह्याभाई देरासरी ने किया (प्रथमावृत्ति १९१३ द्वितीयावृत्ति १९२६) उस समय इन्होंने पाँच प्रतियोंका आधार लिया था। राजस्थान पुरातन ग्रन्थमालामें श्री कान्तिलाल व्यासने कान्हड़देप्रबन्धका पुनः सम्पादन किया (सन् १९५३) इसमें समस्त ११ हस्तलिखित प्रतियोंका उपयोग किया गया है। इसके बाद में भी कान्हड़देप्रबन्ध की कतिपय हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं जिनमें बड़ौदा प्राच्यविद्यामंदिरको भेंट मिले हुए यति श्री हेमचन्द्रजीके भण्डार की सं० १६१० में लिखी हुई प्रति ध्यान में देने योग्य है। कतिपय अन्य प्राचीन शिष्ट कवियोंकी रचना जैसी समादत की गई थी वैसी ही लोकप्रियता 'कान्हड़देप्रबन्ध' को प्राप्त न हुई हो यह इसकी वस्तु स्थिति देखे जाने पर स्वाभाविक है फिर भी गुजरात और राजस्थानके इस काव्यका एक समय विस्तृतरूपसे प्रचार हुआ था इस प्रकारसे जो दूर दूरके स्थानोंमें इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ लिखी गई हैं एवं विभिन्न स्थानोंके ग्रन्थभण्डारोंमें वे सुरक्षित रखी गई हैं, यह उपरोक्त वर्णन से सिद्ध हो जाता है। इस रचनाको 'प्रबन्ध' कहा गया है तो यह 'प्रबन्ध' क्या है ? वैसे तो 'प्रबन्धका शब्दार्थ मात्र 'रचना' ही है । संस्कृत साहित्यकी बात करें तो प्रबन्ध यह गुजरात और मालवाका एक विशिष्ट साहित्यिक रूप है और मध्यकालमें विशेषकर जैन लेखकोंका यह प्रयास है । सामान्यतया सादे संस्कृत गद्यमें और यदाकदा पद्यमें रचे हुए ऐतिहासिक किंवा अर्द्ध-ऐतिहासिक कथानकोंको 'प्रबन्ध'के नामसे पहचाना जाता है । मेरुतुंगाचार्यकृत 'प्रबन्धचिन्तामणि', राजशेखरसूरिकृत 'प्रबन्धकोष' 'जिनप्रभसूरिकृत' विविधतीर्थकल्प', बल्लालकृत 'भोजप्रबन्ध' आदि गद्य में लिखे हए प्रबन्धोंका नमूना है। जब कि प्रभाचंद्रसूरिकृत 'प्रभावकचरित' पद्यमें रचा हुआ प्रबन्ध संग्रह है। यह तो हुई मध्यकालीन संस्कृत साहित्यकी बात । इसके कुछ प्रभावके कारण गुजराती साहित्यमें ऐतिहासिक कथावस्तुवाली रचनाको पहचाननेके लिए, 'प्रबन्ध', शब्दका व्यवहार किया गया हो, ऐसा हो सकता है। जैसे कि 'कान्हड़देप्रबन्ध', लावण्यसमय कृत 'विमल प्रबन्ध', सारंग कृत 'भोजप्रबन्ध', आदि । किन्तु यह परिभाषा पूर्ण रूपसे निश्चित नहीं है। क्योंकि 'कान्हड़देप्रबंध' की हस्तलिखित प्रतियाँ जिनका श्री कान्तिलाल व्यासने उपयोग किया है में की कुछकी पुष्पिकामें उसे 'रास', 'चरित', 'पवाड़ा', तथा चौपाई कहा गया है । 'विमलप्रबन्ध' के संपादन में श्री धीरजलाल धनजी भाई शाह द्वारा व्यवहृत (श्री मणिलाल बकोरभाई व्यासके मुद्रित पाठ सिवायकी) दो हस्तलिखित प्रतियोंमेंसे एककी पुष्पिकामें इस रचनाको, 'रास' बताया गया है और दूसरीकी पुष्पिकामें उसे, 'प्रबन्ध' इसी प्रकारसे 'रास' इन दोनों नामोंका निर्देश किया गया है । 'विमलप्रबन्ध' की अन्य अनेक हस्तलिखित प्रतियोंकी पुष्पिकाओंमें इसे, 'रास' के रूप में निर्देश देखनेका मुझे स्मरण है तिसपर भी 'रेवंतगिरी रास', 'समरा रास', 'पेथड रास', 'कुमारपाल रास', 'वस्तुपाल-तेजपाल रास' आदि ऐतिहासिक व्यक्ति किंवा इहवृत्तके आधारपर निर्मित अनेक रचनाओं को कहीं भी 'प्रबन्ध' नहीं कहा गया है। जयशेखरसूरि कृति त्रिभुवनदीपक प्रबन्ध 'केवल उपदेशप्रधान रूपक ग्रन्थ है इसमें पौराणिक या ऐतिहासिक कोई इतिवृत्त नहीं है। मात्रामेल छंदोंमें रची हई ऐतिहासिक रचनायें 'प्रबन्ध' कहीं जाँय और देशियोंमें रची गई अन्य रचनायें 'रास' कहीं जाय, ऐसी एक मान्यता है, किन्तु ये भी साधार नहीं हैं । क्योंकि, देशी बद्ध रासकी जैसे मात्रामय छन्दोंमें रचे गये रास भी बड़ी संख्यामें प्राप्त होते हैं। नाकर और विष्णुदास जैसे आख्यानकारोंने तो अपने कतिपय आख्यानोंको भाषा और साहित्य : २१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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