SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 684
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ __'सं० १४७३ वर्षे फालग्न (ल्गुन) वदि ९ बुधवासरे। महाराजाधिराज श्रीवीरभान देव... श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे नंदीसंघे–'कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्रीरत्नकीर्तिदेवास्तेषां पट्टे भट्टारक श्रीप्रभाचन्द्रदेवास्तत्पट्ट भ० श्रीपद्मनन्दि देवास्तेषा पट्ट प्रवर्तमाने ।' --(मुद्रित पार्श्वनाथ चरित प्रशस्ति) इससे यह भी ज्ञात होता है कि पद्मनन्दी दीर्घजीवी थे। पड़ावलीमें उनकी आय निन्यानवे वर्ष अट्ठाईस दिनकी बतलाई गई है । और पट्टकाल पैंसठ वर्ष आठ दिन बतलाया है । यहाँ इतना और प्रकट कर देना उचित जान पड़ता है कि वि० सं० १४७९में असवाल कवि द्वारा रचित 'पासणाहचरिउ' में पद्मनन्दीके पट्टपर प्रतिष्ठित होनेवाले भ० शुभचन्द्रका उल्लेख निम्न वाक्योंमें किया है-'तहो पट्टवर ससिणामें, सुहससि मुणि पयपंकयचंद हो।' चूंकि सं० १४७४में पद्मनन्दी द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तिलेख उपलब्ध है, अतः उससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि पद्मनन्दीने सं० १४७४के बाद और सं० १४७९से पूर्व किसी समय शुभचन्द्रको अपने पट्टपर प्रतिष्ठित किया था । कवि असवालने कुशात देशके करहल नगरमें सं० १४७१में होनेवाले प्रतिष्ठोत्सवका उल्लेख किया है। और पद्मनन्दीके शिष्य कवि हल्ल या जयमित्रहल तथा हरिचन्द्र द्वारा रचित 'मल्लिणाह' काव्यकी प्रशंसाका भी उल्लेख किया है। उक्त ग्रन्थ भ० पद्मनन्दी के पदपर प्रतिष्ठित रहते हुए उनके शिष्य द्वारा रचा गया था । कवि हरिचन्दने अपना वर्धमान काव्य भी लगभग उसी समय रचा था। इसीसे उसमें कविने उनका खुला यशोगान किया है: “पद्मणंदि मुणिणाह गणिदहु, चरण सरणुगुरु कइ हरिइंदहु ।" (वर्धमान काव्य) आपके अनेक शिष्य थे. जिन्हें पद्मनन्दीने स्वयं शिक्षा देकर विद्वान् बनाया था। भ० शुभचन्द्र, तो उनके पदधर शिष्य थे ही. किन्त आपके अन्य तीन शिष्योंसे भरारक पदोंकी तीन परम्पराएँ प्रा जिनका आगे शाखा-प्रशाखा रूपमें विस्तार हुआ है। भट्टारक शुभचन्द्र दिल्ली परम्पराके विद्वान् थे। इनके द्वारा 'सिद्धचक्र'की कथा रची गई है। जिसे उन्होंने सम्यग्दृष्टि जालाकके लिये बनाई थी। भट्टारक सकलकीतिसे ईडरकी गद्दी और देवेन्द्रकीर्तिसे सूरतकी गद्दीकी स्थापना हुई थी। चूकि पद्मनन्दी मूलसंघकी परम्पराके विद्वान् थे, अतः इनकी परम्परामें मूलसंघकी परम्पराका विस्तार हुआ। पद्मनन्दी अपने समयके अच्छे विद्वान, विचारक और प्रभावशाली भट्टारक थे। भ० सकलकीतिने इनके पास आठ वर्ष रहकर धर्म, दर्शन, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोष और साहित्यादिका ज्ञान प्राप्त किया था और कवितामें निपुणता प्राप्त की थी। भट्टारक सकलकीतिने अपनी रचनाओंमें उनका ससम्मान उल्लेख किया है। पद्मनन्दी केवल गद्दीधारी भट्टारक ही नहीं थे, किन्तु जैनसंस्कृतिके प्रचार प्रसारमें सदा सावधान रहते थे। पद्मनन्दी प्रतिष्ठाचार्य भी थे। इनके द्वारा विभिन्न स्थानोंपर अनेक मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा की गई थी। जहाँ वे मंत्र-तंत्र वादी थे, वहाँ वे अत्यन्त विवेकशील और चतुर थे। आपके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ विभिन्न स्थानोंके मन्दिरोंमें पाई जाती हैं । पाठकोंकी जानकारीके लिये दो मूर्ति लेख नीचे दिये जाते हैं १. राजस्थान जैन ग्रन्थ-सूची भा० ३ पृ० ८१ । श्री पद्मनन्दी मुनिराजपट्टे शुभोपदेशी शुभचन्द्रदेवः । श्री सिद्धचक्रस्य कथाऽवतारं चकार भव्यांबुजभानुमाली (जैनग्रन्थ प्र० सं० भा० ११०८८) भाषा और साहित्य : १९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy