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________________ राजस्थानका युग-संस्थापक कथा - काव्यनिर्माता हरिभद्र ( स्व ० ) डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, एम० ए०, पी-एच०डी०, डी० लिट्, ज्योतिषाचार्य , युग प्रधान होने के कारण हरिभद्रकी ख्याति उनकी अगणित साहित्यिक कृतियोंपर आश्रित है । राजस्थानका यह बहुत ही मेधावी और विचारक लेखक हैं । इनके धर्म, दर्शन, न्याय, कथा - साहित्य, योग एवं साधनादि सम्बन्धी विचित्र विषयोंपर गम्भीर पांडित्यपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध हैं । यह आश्चर्यकी बात है। कि 'समराइच्च कहा' और 'धूर्त्ताख्यान' जैसे सरस, मनोरंजक आख्यान प्रधान ग्रन्थोंका रचयिता 'अनेकान्तजयपताका' जैसे क्लिष्ट न्याय ग्रन्थका रचयिता है। एक ओर हृदयकी सरसता टपकती हैं, तो दूसरी ओर मस्तिष्ककी प्रौढ़ता । हरिभद्रकी रचनाओं के अध्ययनसे ज्ञात होता है कि ये बहुमुखी प्रतिभाशाली अद्वितीय विद्वान् थे । इनके व्यक्तित्वमें दर्शन, साहित्य, पुराण, कथा, धर्म आदिका संमिश्रण हुआ है । इनके ग्रन्थोंके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि इनका जन्म चित्रकूट- चित्तौर राजस्थान में हुआ था । ये जन्मसे ब्राह्मण थे और अपने अद्वितीय पांडित्यके कारण वहाँके राजा जितारिके राजपुरोहित थे । दीक्षाग्रहण करनेके पश्चात् इन्होंने राजस्थान, गुजरात आदि स्थानोंमें परिभ्रमण किया । आचार्य हरिभद्रके जीवनप्रवाहको बदलनेवाली घटना उनके धर्मपरिवर्तनकी है । इनकी यह प्रतिज्ञा थी — 'जिसका वचन न समझँगा, उसका शिष्य हो जाऊँगा । स्तम्भको लेकर नगरमें दौड़ने लगा । हाथीने अनेक लोगोंको लिए एक जैन उपाश्रयमें प्रविष्ट हुए । यहाँ याकिनी महत्तरा नामकी साध्वीको करते हुए सुना । एक दिन राजाका मदोन्मत्त हाथी आलानकुचल दिया । हरिभद्र इसी हाथीसे बचने के निम्नलिखित गाथाका पाठ चक्कीदुगं हरिपणगं चक्कीण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव दु चक्की केसव चक्की य ॥ इस गाथाका अर्थ उनकी समझमें नहीं आया और उन्होंने साध्वीसे इसका अर्थ पूछा । साध्वीने उन्हें गच्छपति आचार्य जिनभद्र के पास भेज दिया । आचार्यसे अर्थ सुनकर वे वहीं दीक्षित हो गये और बादमें अपनी विद्वत्ता और श्रेष्ठ आचारके कारण पट्टधर आचार्य हुए। जिस याकिनी महत्तराके निमित्तसे हरिभद्रने धर्मपरिवर्तन किया था उसको उन्होंने अपनी धर्ममाताके समान पूज्य माना है और अपनेको याकिनीसूनु कहा है । याकोबीने 'समराइच्च कहा' की प्रस्तावना में लिखा है— 'आचार्य हरिभद्रको जैन धर्मका गम्भीर ज्ञान रखकर भी अन्यान्य दर्शनोंका भी इतना विशाल और तत्त्वग्राही ज्ञान था, जो उस कालमें एक ब्राह्मणको ही परम्परागत शिक्षाके रूपमें प्राप्त होना स्वाभाविक था, अन्यको नहीं । समय हरिभद्रके समयपर विचार करनेके पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि जैन साहित्य परम्परामें इतिहास और पुरातत्त्व : १६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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