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कविने अपने परिचय के सम्बन्धमें कुछ भी नहीं लिखा । केवल सन्धिके अन्तके उल्लेखसे यह पता चलता है कि वे इल्लिराजके पुत्र थे । इसी प्रकारसे अन्तिम प्रशस्तिसे स्पष्ट रूपसे ज्ञात होता है कि वे दिल्ली के आसपास के किसी गाँवके रहने वाले थे । उन्होंने इस काव्यकी रचना योगिनीपुर (दिल्ली) के श्रावक विद्वान् साधारण की प्रेरणासे की थी । उन दिनों दिल्लीके सिंहासनपर शाहनशाह बाबरका शासन था । ग्रंथका रचना काल विक्रम संवत् १५८७ है । इस काव्य रचनाका ग्रंथ प्रमाण लगभग ५००० कहा गया है । पाँच सहस्र श्लोक प्रमाणसे रचना अधिक ही हो सकती है, कम नहीं है । क्योंकि तेरह सन्धियोंकी रचना अपने कायमें कम नहीं है ।
काव्य में निबद्ध तेरह सन्धियों में वर्णित संक्षिप्त विषय-वस्तु इस प्रकार है
( १ ) प्रथम सन्धिमें मगध देशके सुप्रसिद्ध शासक राजा श्रेणिक और उनकी रानी चेलनाका वर्णन है । राजा श्रेणिक अपने युगके सुविदित तीर्थंकर भगवान् महावीरके समवसरण (धर्म-सभा) में धर्म-कथा सुनने के लिए जाते हैं । वे भगवान्की वन्दनाकर गौतम गणधरसे प्रश्न पूछते हैं । १२ कवकों में समाहित प्रथम सन्धिमें इतना ही वर्णन है ।
(२) दूसरी सन्धिमें विजयार्थ पर्वतका वर्णन, श्री अर्ककीर्तिकी मृक्ति-साधनाका वर्णन तथा श्री विजयांकका उपसर्ग-निवारण-वर्णन है । इस सन्धिमें कुल २१ कडवक हैं ।
(३) तीसरी सन्धिमें भगवान् शान्तिनाथकी भवावलिका २३ कडवकोंमें वर्णन किया गया हैं ।
(४) चतुर्थ सन्धि २६ कडवकोंमें निबद्ध है । इसमें भगवान् शान्तिनाथके भवान्तरके बलभद्रके जन्मका वर्णन किया गया है। वर्णन बहुत सुन्दर है ।
(५) पांचवी सन्धिमें (६) छठी सन्धि २५ सिद्धिगमनका वर्णन मुख्य रूपसे
१६ कडवक हैं । इसमें वज्रायुध चक्रवर्तीका वर्णन विस्तारसे हुआ है । कडवकों की है । श्री मेघरथकी सोलह भावनाओंकी आराधना और सर्वार्थकिया गया है ।
(७) सातवीं सन्धिमें भी २५ कडवक हैं । इसमें मुख्यतः भगवान् शान्तिनाथ के जन्माभिषेकका
वर्णन है ।
( ८ ) आठवीं सन्धि २६ कडवकोंकी है। इसमें भगवान् शान्तिनाथके कैवल्य प्राप्ति से लेकर समवसरण - विभूति-विस्तार तकका वर्णन है ।
(९) २७ कडवकों की इस सन्धिमें भगवान् शान्तिनाथकी दिव्य ध्वनि एवं प्रवचन वर्णन है । (१०) दसवीं सन्धिमें केवल २० asar हैं । इसमें तिरेसठ महापुरुषोंके चरित्रका अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन है ।
(११) ३४ कडवों की यह सन्धि भौगोलिक आयामोंके वर्णनसे भरित है, जिसमें केवल इस क्षेत्रका ही नहीं सामान्य रूपसे तीनों लोकोंका वर्णन है ।
१. आयहू गंथपमाणु वि लक्खिउ, ते पाल सयई गणि कइय ण अक्खिउ । विहेण वि ऊषा पुत्तएण, भूदेवेण वि गुणमणजुएण । लिहियाउ चित्तेण वि सावहाणु, इहु गंथु विवह सर जाय भाणु ॥ विक्कमरायहु ववगय कालइ, रिसिवसु सर भूय वि अंकालइ । कत्तिय पढम पक्खि पंचमि दिणि, हुउ परिपुण्ण वि उग्गंत इणि ॥
१६२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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- अन्त्य प्रशस्ति
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