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अपभ्रंश कथा-काव्योंकी भारतीय संस्कृतिको देन
डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल
प्राकृत भाषाके समान अपभ्रंश भाषाको भी सैकड़ों वर्षों तक भारतकी लोकभाषा अथवा जनभाषा होनेका सौभाग्य मिला। भारतीय साहित्यमें इसकी लोकप्रियताके सैकड़ों उदाहरण उपलब्ध होते हैं। ईस्वी ६ठी शताब्दी पूर्व ही अपभ्रंशका खूब प्रचलन हो गया था। संस्कृत और प्राकृतके साथ अपभ्रंशका भी पुराणों व्याकरणों तथा शिलालेखोंमें उल्लेख होने लगा था। वैय्याकरणोंने प्राकृत व्याकरणोंमें प्राकृतके साथ अपभ्रंशपर भी खूब विचार किया। प्रारम्भमें यह प्रादेशिक बोलियोंके रूप में आगे बढ़ी। आठवीं शताब्दी तक यह जनभाषाके साथ-साथ काव्य भाषा भी बन गयी और बड़े-बड़े कवियोंका इस भाषामें काव्य-निर्माण करनेकी ओर ध्यान जाने लगा। यद्यपि अपभ्रंश भाषामें अभी तक स्वयम्भूके पूर्वकी कोई रचना उपलब्ध नहीं हो सकी है लेकिन स्वयं स्वयंभूने अपने पूर्ववर्ती एवं समकालीन जिन कवियोंका उल्लेख किया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस भाषामें ८ वीं शताब्दीके पूर्व ही काव्यरचना होने लगी थी और यही नहीं उसे साहित्यिक क्षेत्रमें समादर भी मिलने लगा था।
८वीं शताब्दीके पश्चात् तो अपभ्रंश भाषाको काव्यरचनाके क्षेत्रमें खूब प्रोत्साहन मिला । देशके शासक वर्ग, व्यापारी वर्ग एवं स्वाध्याय प्रेमी जनताने अपभ्रंशके कवियोंसे काव्य निर्माण करने का विशेष आग्रह किया। इससे कवियोंको आश्रयके अतिरिक्त अत्यधिक सम्मान भी मिलने लगा और इससे इस भाषामें काव्य, चरित, कथा, पुराण एवं अध्यात्म साहित्य खूब लिखा गया और इसी कारण उत्तरसे दक्षिण तक तथा पूर्व से पश्चिम तककी भारतीय संस्कृतिको एकरूपता देने में अत्यधिक सहायता मिली। लेकिन ६० वर्ष पूर्व तक अधिकांश विद्वानोंका यही अनुमान रहा कि इस भाषाका साहित्य विलुप्त हो चुका है। सर्वप्रथम सन् १८८७में जब रिचर्ड पिशेलने सि हेमशब्दानुशासनका प्रकाशन कराया तो विद्वानोंका अपभ्रंश भाषाकी रचनाओंकी ओर ध्यान जाना प्रारम्भ हआ। हर्मन जैकोबीको सर्वप्रथम जब भविसयत्तकहाकी एक पाण्डुलिपि उपलब्ध हुई तो इस भाषाकी रचनाओंके अस्तित्वकी चर्चा होने लगी और जब उन्होंने सन् १९१८में इसका जर्मन भाषामें प्रथम प्रकाशन कराया तो पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानोंकी इस भाषाके साहित्यको खोजनेकी ओर रुचि जाग्रत हुई और सन् १९२३में गुणे एवं दलालने 'भविसयत्तकहा' का ही सम्पादन करके उसके प्रकाशनका श्रेय प्राप्त किया। इसके पश्चात् तो देशके अनेक विद्वानोंका ध्यान इस भाषाकी कृतियोंकी ओर जाने लगा और कुछ ही वर्षों में राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात और देहलीके ग्रन्थालयोंमें एकके बाद दूसरी रचनाकी उपलब्धि होने लगी। और आज तो इसका विशाल साहित्य सामने आ चुका है। लेकिन अपभ्रंशकी अधिकांश कृतियां अभी तक अप्रकाशित हैं। ८वीं शताब्दीसे लेकर १५ वीं शताब्दी तक इस भाषामें अबाध गतिसे रचनाएँ लिखी गयीं। किन्तु संवत् १७०० तक इसमें साहित्य निर्माण होता रहा। अब तक उपलब्ध साहित्यमें यदि महाकवि स्वयम्भूको प्रथम कवि होनेका सौभाग्य प्राप्त है तो पंडित भगवतीदासको अन्तिम कवि होनेका श्रेय भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। मृगांकलेखाचरित इनकी अन्तिम कृति है जिसका निर्माण देहलीमें हुआ था। उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य मुख्यतः चरित एवं कथामूलक है । पुराण साहित्यकी भी इसमें लोकप्रियता
इतिहास और पुरातत्त्व : १५५
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