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इस स्तोत्र की प्रशस्ति अथवा इसके उपसंहारमें रचनाकालका उल्लेख नहीं । श्लोकोंकी रचनासे यदि अनुमान करें तो वे सब एक समान काव्यशक्ति से सम्पन्न दिखाई नहीं देते । कुछमें केवल शब्दानुप्रास है और कुछ उच्चकोटिकी प्रौढि और भावभक्तिसे पूर्ण दिखाई देते हैं । इससे ज्ञात होता है कि क्षमाकल्याणने इसकी रचना एक समय न करके विभिन्न समयों में की है ।
इस स्तोत्रमें शार्दूलविक्रीडित, मालिनी, स्रग्धरा, द्रुतविलम्बित, उपेन्द्रवज्रा, भुजङ्गप्रयात, त्रोटक, वंशस्थ, वसन्ततिलका, हरिणी, रथोद्धता, मन्दाक्रान्ता, कामक्रीडा, गीतपद्धति, पंचचामर, उपजाति और पृथ्वी छन्दोंका प्रयोग किया गया है । छन्दोंकी इस तालिकासे स्पष्ट है कि क्षमाकल्याणका प्रत्येक छन्दपर अधिकार था और कुछ छन्द तो ऐसे हैं जिनका अन्य स्तोत्रों में दर्शन भी नहीं होता । रचना सौन्दर्य एवं भक्ति- उद्रेक
स्तुतियों में क्षमाकल्याण जिन विशेषणोंका प्रयोग करते हैं वे विशेषण शरीरकी आकृतिसे सम्बन्ध न रखकर अपने इष्टदेवोंके उन गुणोंका स्मरण करते हैं जो उनके जीवनकी विशेषता के द्योतक हैं । संभवेश प्रशमरसमय हैं तो वीरप्रभु अपने ज्ञानप्रकाशसे विवेकिजनवल्लभ हैं ।
विवेकिजनवल्लभ भुवि दुरात्मनां दुरन्तदुरितव्यथाभरनिवारणे तत्परम् । तवाङ्गपदपद्मयोर्युगमनिन्द्य वीरप्रभो प्रभूतसुखसिद्धये मम चिराय सम्पद्यताम् ॥
यद्भक्त्यासक्तचित्ताः
प्रचुरतरभवभ्रान्तिमुक्ताः संजोता ः साधुभावोल्लसितनिजगुणान्वेषिणः सद्य एव । स श्रीमान् संभवेशः प्रशमरसमयो विश्वविश्वोपकर्ता सद्भर्ता दिव्यदीप्ति परमपदकृतेसेव्यतां भव्यलोकाः ॥
जहाँ संभवेशकी स्तुतिमें क्षमाकल्याण भावोंसे ओतप्रोत दिखाई देते हैं वहाँ धर्मनाथ चैत्यकी वन्दनामें एक ही प्रकारके प्रत्ययान्त शब्दोंके प्रयोग और अनुप्रासको छटामें ही आप अपनी विशेषता दिखाते प्रतीत होते हैं ।
निःशेषार्थ प्रादुष्कर्ता सिद्धेर्भर्ता संहर्ता दुर्भावानां दूरेहर्ता दीनोद्धर्ता संस्मर्ता । सद्भक्तेभ्यो मुक्तेर्दाता विश्वत्राता निर्माता ।
आपके कुछ श्लोक ऐसे भी हैं जो मधुर और कोमलकान्त पदावलीके कारण विशेष रूपसे आकर्षक माने जा सकते हैं ।
विशदशारद - सोमसमाननः
कमल कोमल - चारुविलोचनः । शुचिगुणः सुतरामभिनन्दन: जयतु निर्मलताञ्चितभूधनः ॥
स्तोत्र के इन कतिपय उदाहरणोंसे इस स्तोत्रकी रचनशैली और इसके भावोंकी भूमिकाका सामान्य ज्ञान पाठक प्राप्त कर सकते हैं ।
उपसंहार में यही कहा जा सकता है कि इन समस्त ग्रन्थोंके अनुशीलनसे ज्ञात होता है कि महोपाध्याय क्षमाकल्याणका संस्कृत भाषापर पूर्ण अधिकार था । आपकी संस्कृत भाषा प्रत्येक विषयके प्रतिपादनमें सर्वथा प्रवाहशील रहती थी । होलिकाव्याख्यानम् में यदि यह भाषा कुछ स्थलों में समस्त हो गयी है तो अक्षयतृतीय व्याख्यानम् में यह विशेष रूपसे अभिव्यञ्जक बन गयी है । यशोधर चरित्रके उपदेशमें आपने कादम्बरीके शुकनासोपदेशका अनुसरण और अनुकरण भी परम सुन्दर रीतिसे किया है ।
कथाओं के अतिरिक्त आपने जैन चरितों, काव्यों तथा दार्शनिक ग्रन्थोंपर जिन टीकाओं एवं वृत्तियों को लिखा है, उन सबका विवेचन भी उत्तमकोटिको टीकाशैली एवं वृत्तिशैलीके अनुकूल ही है । काव्यों में आपकी गौतमीय काव्यकी टीका पाण्डित्यकी दृष्टिसे सर्वोत्तम । इस काव्य में बौद्धों, वेदान्तियों, नैयायिकों आदि समस्त दार्शनिकोंकी आलोचना सुन्दर रूप की गयी है । १५२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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