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________________ पूर्ण खण्डन जिस रीतिसे किया गया है उससे व्याख्याकारकी समर्थ विद्वत्ता, प्रौढ़ अनुभवशीलता तथा अनुपमें विवेचनशक्तिका ज्ञान होता है। यशोधरचरित्रम् मुनि क्षमाकल्याण द्वारा रचित इस चरित्र का रचनाकाल संवत् १८३९ है। इसमें एक पाप करनेसे किन-किन योनियोंमें भटकते हए उस पापका प्रायश्चित्त करना होता है इसका साङ्गोपाङ्ग वर्णन एक माता द्वारा बलात् अपने पुत्रको एक मुर्गेका मांस भक्षण करा देनेसे उनके भिन्न-भिन्न १० जन्मोंका वर्णन किया गया है। वे मयूर-श्वान, नकुल-भुजङ्ग, मत्स्य-ग्राह, अज-मेष, मेष-महिष, मुर्गा-मुर्गी आदि योनियोंमें उत्पन्न होते रहे और अपने-अपने पूर्व जन्मानुसार उनका फल भोगते रहे। . इस चरित्रकी वर्णन-शैली और इसकी भाषापर बाण एवं दण्डीका प्रभाव स्पष्ट रूपसे परिलक्षित होता है । नीचे लिखे उपदेशमें कादम्बरीके शुकनाशोपदेशकी झलक स्पष्ट है । यथा-तात ! दारपरिग्रहो नाम निरौषधो व्याधिः, आयतनं मोहस्य, सभा व्याक्षेपस्य, प्रतिपक्षः शान्तेः, भवनं मदस्य, वैरी शुद्धध्यानानाम्, प्रभवो दुःखसमुदायस्य, निधनं सुखानाम् आवासो महापापस्य । २ बाण की इस अनुकृतिके साथ निम्नलिखित गद्यांशमें दशकुमारचरितकी गद्यशैली भी पूर्ण सफलताके साथ अपनायी गयी है। यथा ___अथ एवंविधे तत्राऽतीव भयङ्करे व्यतिकरे बहुभिस्तपोधनः परिवृतः परमसंवतः सदासुदृष्टिर्युगमात्रभूमिस्थापितदृष्टिमहोपयोगी। होलिका व्याख्यानम् धार्मिक पर्वो पर व्रत-उपवासादिके महत्त्वको बतानेवाले प्रवचनों और कथाओंको जैनविद्वान् व्याख्यान कहते हैं । मौन एकादशी, दीपावली, होलिका, ज्ञानपञ्चमी. अक्षयततीया और मेरु त्रयोदशी आदि पोंपर भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहधा चव दश्यते जलचन्द्रवत यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः संकीर्णमिव मात्राभिभिन्नाभिरभिमन्यते । तथेदममलं ब्रह्म निर्विकल्पमविद्यया कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रकाशते । सर्ग ७१७४ । यदि केवलं चक्षरिन्द्रियग्राह्यमेव प्रत्यक्षं स्यात तदा गन्धादि-विषये गन्धरस-स्पर्शादिविषये निरुपाधिकमपाधि जतं प्रत्यक्षं ज्ञानं किमच्यते कथं प्रोच्यते ? तस्मात्प्रागक्तमेव तल्लक्षणं ज्ञयम् । चाक्षुषमिति चक्षुषा गृह्यते इत्यर्थे विशेषे इत्यण् । निरित्यादि । निर्गत उपाधिर्यस्मात् स्वसमीपवर्तिनि स्ववृत्तिधर्मसङ्क्रामकत्वमुपाधित्वमिति तल्लक्षणम् । ७।५० । १. (अ) वर्षे नन्दकृशानु-सिद्धि-वसुधासङ्ख्ये (१८३९) नभस्य सिते पक्षे पावनपञ्चमी सुदिवसे ।। (आ) सूरिश्रीजिनभक्ति-भक्तिनिरताः श्रीप्रीतितः सागराः तत् शिष्यामृतधर्मवाचकवराः सन्ति स्वधर्मादराः । तत्पादाम्बुजरेणुराप्तवचनः स्मर्ता विपश्चित् क्षमा कल्याणः कृतवान् मुदे सुमनसामेतच्चरित्रं स्फुटम् ।।-यशोधरचरित्रम्-अन्तिम प्रशस्ति । २. यशोधरचरित्रम्-पृष्ठ ४९। ३. यशोधरचरित्रम्-पृष्ठ ३३ । १५० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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