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द्यान्धकारमें ला पटका । लगभग डेढ़-दो सौ वर्ष बीतते-बीतते पाणिनिका प्रदुर्भाव हुआ, शब्दशास्त्रमें निष्णात होकर उसने देखा, कि सर्वसाधारण भाषामें तेजीसे परिवर्तन होनेकी आशंका है। विद्वत्समाजका संपर्क न रहनेसे प्रयोगमें विकार आनेको है। उस कालमें पाणिनिने व्याकरणकी रचना कर संस्कृत भाषाको सुसंबद्ध, व्यवस्थित व सुरक्षित बना दिया । उस समय तेजीसे भाषामें परिवर्तन हो रहा था, इसमें यह भी प्रमाण है, कि पाणिनिके तत्काल अनन्तर अन्य अनेक परिवर्तन व विकारोंकी व्यवस्थाके लिए आचार्य कात्यायनको अपने वार्तिकसन्दर्भकी रचना करनी पड़ी। तब कहीं आज तक संस्कृत भाषा उसी रूपमें सुरक्षित है । विकृत व परिवर्तित होती हुई वह भाषा अपने निरन्तर प्रवाहमें बहती आज वर्तमान प्रान्तीय भाषाओंके रूपमें आ पहुँची है।
अपने संघटनमें संस्कृत कभी द्रविड़ भाषासे प्रभावित नहीं हई। इसकी रचना अपने रूपमें मौलिक व स्वतंत्र है । कालान्तरमें अन्य भाषाओं के शब्दोंको इसने आत्मसात् किया हो, यह साधारण बात है, इस विषयमें कुछ नहीं कहना । संस्कृतमें द्विवचनका प्रयोग अपनी मौलिक रचनाके अनुकूल है। कहींसे उपाहत व अनुकृत नहीं। इसके प्रयोगका मूल आधार क्या है इसका विवेचन इस समय लक्ष्य नहीं, पर निःसन्देह उसका आधार विचारपूर्ण, विज्ञानमूलक व दार्शनिक भित्तिपर अवलम्बित है । इस लेख द्वारा केवल इस तथ्य पर प्रकाश डालनेका यत्न किया है, कि अबसे पांच सहस्र वर्ष पूर्व भारत में जनता द्वारा संस्कृतमें द्विवचनका प्रयोग अपना मौलिक है। मोइन्जोदड़ोके लेख अभी अज्ञात व अपठित हैं, उनके विषयमें पूर्ण जानकारीकी बात कहना दुस्साहस व सत्यज्ञानकी विडम्बनाका ही द्योतक है । प्रयत्नका मार्ग सबके लिए खुला है ।
इतिहास और पुरातत्त्व : १४१
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