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जैन तीर्थोंकी यात्रा-वैष्णव संप्रदायोंका अधिक प्रचार होनेसे इस कालमें जैनधर्मका प्रभाव तो घट गया था, किंतु जैन देवस्थानोंके प्रति जनताकी श्रद्धा बनी रही थी। वैष्णव संप्रदायोंका केन्द्र बननेसे पहिले मथुरा नगर जैनधर्म का प्रसिद्ध केन्द्र था । श्वेतांबर और दिगंबर दोनों संप्रदायोंके जैन साधु और श्रावकगण मथुरा तीर्थकी यात्रा करने आते थे। ऐसे अनेक तीर्थ-यात्रियोंका उल्लेख जैनधर्मके विविध ग्रंथोंमें हुआ है। सुप्रसिद्ध शोधक विद्वान् श्री अगरचंदजी नाहटाने उक्त उल्लेखोंका संकलनकर इस विषयपर अच्छा प्रकाश डाला है। उनके लेखसे ज्ञात होता है कि प्रथम शतीसे सतरहवीं शती तक जैन यात्रियोंके आनेका क्रम चलता रहा था । मथुरा तीर्थकी यात्रा करनेवाले जैन यात्रियोंमें सर्वप्रथम मणिधारी जिनचंद्र सरिका नाम उल्लेखनीय है। 'युग प्रधान गुर्वावली' के अनुसार उक्त सरिजीने सं0 1214-17 के कालमें मथुरा तीर्थकी यात्रा की थी । उक्त गुर्वावलमें खरतर गच्छके 14 शताब्दी आचार्य जिनचंद्र सूरिके नेतृत्वमें ठाकुर अचल द्वारा संगठित एक बड़े संघ द्वारा भी यात्रा किये जाने का उल्लेख हुआ है। वह यात्री-संघ सं० 1374 में मथुरा आया था। उसने मथुराके सुपार्व और महावीर तीर्थोकी यात्रा की थी। मुहम्मद तुगलकके शासन काल ( सं० 1382-सं० 1408 ) में कर्णाटकके एक दिगंबर मुनिकी मथुरा यात्राका उल्लेख मिलता है। उसी कालमें समराशाहने शाही फरमान प्राप्तकर एक बड़े यात्री-संघका संचालन किया था। उसी संघके साथ यात्रा करते हुए गुजरातके श्वेतांबर मुनि जिनप्रभ सरि सं0 1385 के लगभग मथुरा पधारे थे। उन्होंने यहाँके जैन देवालयोंके दर्शन और जैन स्थलोंकी यात्रा करने के साथ ही साथ व्रजके विविध तीर्थोकी भी यात्रा की थी। उक्त यात्राके अनंतर जिनप्रभ सुरिने सं० 1388 में 'विविध तीर्थ कल्प' नामक एक बड़े ग्रंथकी रचना प्राकृत भाषामें की थी, उसमें उन्होंने जैन तीर्थोका विशद वर्णन किया है। इस ग्रंथका एक भाग 'मथुरापुरी कल्प' में है, जिसमें मथरा तीर्थसे संबंधित जैन अनश्रतियोंका उल्लेख हुआ है। इसके साथ ही उसमें मथुरामंडलसे संबंधित कुछ अन्य ज्ञातव्य बातें भी लिखी गई हैं। उनसे यहाँकी तत्कालीन धार्मिक स्थितिपर अच्छा प्रकाश पड़ता है।
कृष्ण-भक्तिके प्रचार और सुलतानोंकी नीतिका प्रभाव-जब व्रजमंडलके कृष्ण-भक्ति का व्यापक प्रचार हुआ, तब यहाँके बहसंख्यक जैनी जैनधर्मको छोड़कर कृष्ण-भक्तिके विविध संप्रदायोंके अनुयायी हो गये थे । नाभा जी कृत 'भक्तमाल' और बल्लभ संप्रदायी 'वार्ता' में ऐसे अनेक जैनियोंके नाम मिलते हैं। जैनधर्मको उस परिवर्तित परिस्थितिमें व्रजमंडलके जैन स्तूप-मंदिर, देवालय आदि उपेक्षित अवस्थामें जीर्ण-शीर्ण होने लगे थे। फिर दिल्लीके तत्कालीन मुसलमान सुलतान अपने मजहबी तास्सुबके कारण बारबार आक्रमण कर उन्हें क्षति पहुँचाया करते थे। सेठ समराशाह जैसे धनी व्यक्ति समय-समय पर उनकी मरम्मत कराते थे, किन्तु वे बार-बार क्षतिग्रस्त कर दिये जाते थे। इस प्रकार मुगल सम्राट अकबरके शासनकालसे पहिले मथुरा तीर्थका महत्त्व जैन धर्मको दृष्टिसे कम हो गया था, और वहाँके जैन देव-स्थानोंकी स्थिति शोचनीय हो गयी थी।
कृष्ण-भक्तिके वातावरणमें रचित जैन ग्रंथ-श्रीकृष्णके पुत्र प्रद्युम्नके संबंधमें जैन मान्यताका सर्वप्रथम व्रजभाषा ग्रंथ सुधार अग्रवाल कृत 'प्रद्युम्न चरित' है। यह एक सुन्दर प्रबंध काव्य है 'ब्रजभाषाके अद्यावधि प्राप्त ग्रंथों में सबसे प्राचीन' होने के साथ ही साथ यह हिन्दी जैन ग्रंथके रूपमें भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसका रचना-काल १४वीं शताब्दी है। इस ग्रंथके पश्चात् जो हिन्दी जैन रचनाएँ प्रकाशमें आईं, उनमें से
१. 'व्रज भारती', वर्ष ११, अंक २ में प्रकाशित-'मथराके जैन स्तुपादिकी यात्रा।'
३० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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