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________________ प्रसत हो चुकी थीं। क्षीरस्वामीने उनका 'आखुरथ' नाम भी दिया है। आठवीं शताब्दी के महान जैन साहित्यकार और दार्शनिक हरिभद्रसूरिने धर्ताख्यानमें गणपतिके पार्वतीके मलसे उत्पन्न होनेकी कथा दी है। कुवलयमालाकथामें विनायक उन देवताओं में परिगणित हैं जिनका विपत्ति के समय लोग ध्यान करते थे। गजेन्द्ररूपमें अनेक लोकदेवताओंके साथ इनकी चत्वरमें पूजा होती।' स्कन्दपुराणादिमें जो इनका विशद वर्णन है वह प्रायः सभी को ज्ञात है। कक्कूकके धरियाले स्तम्भके संवत ९१८के प्रथम अभिलेखका आरम्भ विनायकको नमस्कारसे होता है। इसी यश:स्तम्भ पर चतुर्मुख विनायककी सुन्दर मूर्ति है। नृत्य मुद्रामें गणपति की मूर्तियां भी पर्याप्त जनप्रिय रही होंगी। ये हरस, आबानेरी, आदि अनेक स्थानों से मिली हैं। मण्डोर रेल्वे स्टेशनके निकट डी पर शिव समेत गणपति और मातकाओं की मतियां भी दर्शनीय हैं। महाराजा जयपरके संग्रहमें गणपतिनृत्यमुद्रामें सप्तमातृकासहित शिव उल्लेखनीय है ।' अटरूमें भी इसी तरह गणपति की अनेक प्रकारको प्रतिमाएं मिली हैं, जो गणपति पूजाके विशेष प्रचार की द्योतक है । कहीं स्थानक, कहीं आसीन, कहीं शक्तियुत, तो एक स्थानमें चतुर्बाहु रूपमें ये गरुडासीन भी हैं । स्कन्द, कुमार या कात्तिकेय भी शैववर्गमें हैं । गुप्तकालमें स्कन्दके पूजनका बहुत अधिक प्रचार था। दो गुप्त सम्राट् स्कन्द और कुमार इन्हींके नामसे अभिहित हैं। कालिदासने इन्हींके गौरवगानमें कुमार भव की रचना की। यौधेयोंके ये इष्टदेव थे। अमरकोशने गणपतिके आठ तो स्कन्दके सतरह नाम दिए हैं। किन्तु प्रतिहारकालमें स्कन्दकी यह जनप्रियता बहत कुछ लप्त हो चुकी थी। किसी प्रतिहार सम्राट्न स्कन्दको इष्टदेवके रूपमें ग्रहण न किया। उपमितिभवप्रपञ्चा, यशस्तिलक, बृहत्कथाकोश, जिनेश्वरीकथाकोश प्रकरण आदि ग्रंथों में उनका स्थान नगण्य है। रोहीतक किसी समय स्कन्दका मुख्य स्थान था। किन्तु यशस्तिलकने स्कन्दकी गौणताके कारण यहाँ चण्डमारीको प्रतिष्ठित कर दिया है। कुवलयमालामें अनेक अन्य देवताओंके साथ स्कन्दका नाम है। स्कन्दपुराणके कौमारी खण्डमें स्कन्द की पर्याप्त प्रशंसा वर्तमान है; किन्तु उसमें भी स्कन्दके पूजनादिका विशेष विधान और वर्णन नहीं है। हरिभद्रसूरिने कुमारकी उत्पत्ति की कथा देते हुए उसका स्थान दक्षिण देशके अरण्यमें रखा है ( ३.८३ )। शायद इससे यह अनुमान करना असंगत न हो कि हरिभद्रके समय स्कन्दकी पूजाका प्रचार मुख्यतः दक्षिणमें था। स्कन्दकी गुप्तकालीन मूर्तियां अवश्य राजस्थानमें प्राप्य है। सूर्यकुलीन देवोंमें रेवन्तका उल्लेख कुवलयमालामें है । बृहत्संहिता और विष्णुधर्मोत्तरपुराण में रेवन्त की मूर्तिका विधान है । कालिकापुराण के अनुसार इनका पूजन द्वारके निकट पूर्ण जलपात्र रखकर भी किया जाता । जलपात्रमें उनकी उपस्थिति मान ली जाती । जनताका विश्वास था कि आकस्मिक विपत्तियोंके समय रेवन्त विपद्गत व्यक्तियोंकी रक्षा करते हैं। इसलिए यह समुचित ही था कि समुद्रमें तूफान आनेपर कुवलयमाला कथाके जलयात्रियोंने रेवन्तकी प्रार्थना आरम्भ की। अमरकोशमें रेवन्तका नाम नहीं है। अन्यत्र इन्हें सूर्य और संज्ञाका पुत्र और गुह्यकोंका राजा कहा गया है जिससे प्रतीत होता है कि प्रथमत: मणिभद्रादिकी तरह ये भी जनदेव थे और समयानुक्रमसे सूर्यकुलमें परिगणित हुए । १. पृष्ठ, २, १४, २५६ । २. देखें डॉ. रत्नचन्द्र अग्रवालके लेख, मरुभारती, ८, २, २९, आदि; जर्नल ऑफ इण्डियन हिस्ट्री, २८, पृष्ठ ४९७ आदि। ३. मरुभारती, ८,१, ६७ । ४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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