________________
फसलें कटकर खलिहानोंमें पहुँचती हैं । खलिहानों से गोदामोंमें और गोदामोंसे सौ टंच स्वर्ण बनकर साहूकारोंकी तिजोरियोंकी शोभा बढ़ाती हैं । देश सम्पन्न कहलाता है और देशवासी खुशहाल कहे जाते हैं। पीछे एक वर्ग रह जाता है, खेतोंके कूड़ोंमें से, गर्तो में से दबे ढँके अन्नके दानोंको एक- एक चुनकर उठाकर राशि बनानेके लिये । वे अन्नके दाने, जो किसानके लिये, साहूकार के लिये किसी अर्थ के नहीं थे, अर्थ बनकर जगमगाते चमकते हैं । ये ही अन्नकण 'सिला' कहलाते हैं और उन मणियोंको चुनने - खोजने बटोरने वाले 'सिलहार' कहे जाते हैं । वेदमें इस सिलेको 'पावनतम' कहा गया है और मैं ऐसे सिलहार ऋषि कहता हूँ । इन तपःपूत 'ऋषियों के शुभसीकरों पर वेद ऋचाएं बलिहार होती हैं । साहित्यकी फसल कटकर जब गोदामोंमें और गोदामोंसे तिजोरियों में पहुँच जाती है, तब साहित्यके खोजी सिलहारकी संवेदना जाग्रत होकर अन्धेरे- धूल-धुंआ सीलन- सड़न - दुर्गन्ध भरे गोलम्बरों- अलमारियों-प्रन्थागारों और उन प्राचीन बस्तोंके अन्धेरे-अज्ञात कूड़ोंमें भटकती है, जहाँ सहस्रों ज्ञानराशिके कणों ग्रन्थरत्नों को दीमक चूहेकीट-पतंग-सील-पानी और न जाने कौन-कौन अपना भोज्य बना रहे होते हैं । यह सिलसिला जितना पुराना होता है, उतनी ही उसके खोज - उद्धारकी संभावनाएँ भी क्षीण रहती हैं । हमारी उपेक्षा, हमारा प्रमाद, हमारी मौजी प्रवृत्तिके कारण न जाने कितने ऐसे रत्न अकाल ही नष्ट हो गए और हो रहे हैं तथा कितने ही प्रकाश की किरणों को तरस रहे हैं । साहित्य के खोजियोंसे यह तथ्य छिपा नहीं है । प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोंकी यह पूँजी जब प्रकाशमें आती है तो गोदामों और तिजोरियोंके स्वामियोंकी बाँहें खिल उठती हैं । इनसे इतिहास तो अपना प्रामाणिक मार्ग खोजने में समर्थ होता ही है, ज्ञान विज्ञानकी नई-नई दिशाएं भी खुल जाती हैं । श्रेष्ठवर श्री अगरचन्द नाहटा उक्त प्रकारके साहित्यके खोजी सिलहारों के सम्राट् निरपवाद रूपसे कहे जा सकते हैं । पत्थर बने सगरसुतोंका उद्धार करनेको भगीरथने तपोबलसे गंगाको भू पर उतारा था । कोटि-कोटि पत्थरोंको नया जीवनदान दिया है साहित्यके इस भगीरथने - इसमें शायद ही किसी को वैमत्य हो । उनके जीवनको प्रायः तीस वर्ष इसी खोज-साधना में व्यतीत हुए हैं ।
नाहटाजीको साहित्य-भगीरथ कहनेकी सार्थकता है । उनके महनीय परिश्रम और उनकी समृद्धि सारस्वत-उपलब्धियोंको देखकर सहसा आश्चर्यमें डूब जाना पड़ता है । अनेक साधन-सम्पन्न संस्थाएं मिलकर इतना महान् उद्योग नहीं कर सकतीं, ऐसा मेरा विश्वास है । मेरे समक्ष संवत् २०१० वि० में प्रका शित श्री नरोत्तमदास स्वामी द्वारा संकलित रायल अठपेजी आकारकी श्री नाहटाजीके लेखोंकी ६८ पृष्ठोंकी सूची है । आज संवत् २०२८ है । १८ वर्ष और ऊपर हो गये । अब तक यह तालिका इससे प्रायः दूनी तो हो ही गई होगी । किन्तु प्रस्तुत तालिकाको ही लें, तो भी यह कार्य साहित्यमें अमर बना देनेको पर्याप्त है । इसमें प्रकाशित लेखोंकी संज्ञा १९६१ है । इस समय यह संख्या ३००० से कदापि कम नहीं हो सकती, ऐसा अनुमान है । सं० २०१० तक नाहटाजी देशके उच्चकोटिकी १४१ पत्र-पत्रिकाओंमें छप चुके थे । आज वे कितने और छपे हैं, इसका अनुमान उनकी कर्मठता, लगन, लेखन गति और उनके परिश्रमसे सहज ही लगाया जा सकता है ।
साहित्य के पुण्यश्लोक भगीरथ डॉ० भगवान सहाय पचोरी
उन्होंने कई लाख हस्तलिखित प्रतियोंका निरीक्षण किया है। अगणित पाण्डुलिपियों और कई हजार चित्रादिका निजी संग्रह किया है। तीस हजार पाण्डुलिपियोंकी वैज्ञानिक विवरणात्मक सूची भी वे बहुत पहले तैयार कर चुके हैं। ऐसा शायद ही कोई विषय है जिसे उनकी लगनपूर्ण साधनाने अछूता छोड़ा हो ।
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २४९
३२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org