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अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी
मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' संघकी वैयावृत्ति, प्रवचनकी प्रभावना, तीव्रतर तपस्या, कायोत्सर्ग आदि कर्म-निर्जराके महान हेतु हैं । कर्म-निर्जराके अन्य माध्यमोंमें अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी भी एक सबल माध्यम है, जिसका अवष्टम्भ सामान्य व्यक्तिके द्वारा नहीं हो सकता। ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम उसमें विशेष निमित्त होता है। तत्व-चर्चा या दर्शन-मीमांसाके साथ-साथ परम्पराओंका ऐतिहासिक पर्यालोचन व साहित्यके विभिन्न स्रोतोंके उद्गम और विकासका लेखा-जोखा भी आधुनिक स्वाध्याय-परम्परामें अनुबद्ध हो गया है। श्री अगरचन्दजी नाहटा उसी नवीन शृंखलाकी एक बड़ी कड़ी हैं। जैन-शासनके इतिहासकी सूक्ष्मतम सूचनाओंके आकलनमें उन्होंने अपना जितना समय लगाया है, उतना ही उन्होंने पाया भी है। वह प्राप्ति उनके कर्म-निर्जरणमें जहाँ सहयोगिनी है, वहाँ जैन-शासनके गौरवको वृद्धिगंत करने तथा नवीन तथ्योंकी ओर जैन व अजैन व्यक्तियोंको आकर्षित करनेमें भी सफल हुई है। प्राचीन तथ्योंकी प्रामाणिक जानकारीमें जिन मर्धन्य व्यक्तियोंका स्थान है, उनमें श्री नाहटाजी अग्रणी हैं।
___ आधुनिक शिक्षा-दीक्षा तथा वातावरणसे सर्वथा दूर होते हुए भी श्री नाहट जीने जो साहित्य-सेवाकी है, वह उनकी जैनधर्मके प्रति गहरी निष्ठा की अभिव्यंजना तो है ही, साथ-साथ उनकी सूक्ष्म तथा ग्राहक दृष्टिको भी साक्षिका है। उनका अपना निजी बृहत् ग्रन्थागार ग्रन्थोंकी महनीयता तथा संख्याकी विपुलताके कारण जहाँ 'विद्वानों को आकर्षित करता है, वहाँ उनके व्यवस्था-कौशलसे भी प्रभावित किये बिना नहीं रह सकता।
वि० सं० २०२१ की घटना है। युग-प्रधान आचार्य श्री तुलसीका चतुर्मास बीकानेरमें था। मैं उन दिनों 'काल यशोविलास' का सम्पादन कर रहा था। उसी सन्दर्भमें एक प्रसंगपर मुझे भगवती-स तथा विभिन्न प्रतियोंके अवलोकनकी अपेक्षा हुई । मैं श्री नाहटाके ग्रन्थागारमें पहुँचा । नाहटाजीने कुल पाँचसात मिनटमें ही मेरे सामने भगवती-सूत्रकी हस्तलिखित तथा मुद्रित बीसों प्रतियाँ रख दीं। मुझे वे परिचय देने लगे कि, अमुक प्रतिका लेखन-संवत् अमुक है और अमुकका अमुक । मुझे अपेक्षित सन्दर्भको खोजनेमें बहुत सुगमता हुई । ग्रन्थागारमें पुस्तकों तथा हस्तलिखित प्रतियोंके रखनेका उनका तरीका अत्यन्त आधुनिक और सरल लगा।
श्री नाहटाजी अनेक प्रसंगोंपर मुझसे मिले हैं। जब-जब उनके साथ किसी भी पहलपर चर्चा हुई है, वह बहुत सरस, बहुत गम्भीर तथा नवीन तथ्योंसे परिपूर्ण हुई है। नई शोधका उनका अनवरत क्रम चलता रहता है। अतः वे हर समय नई सूचना देनेके अधिकारी रहते हैं। जैनधर्म व राजस्था विभिन्न पहलुओंपर शोध-कर्ताओंके लिए उन्होंने जहाँ अपने ग्रन्थागरके द्वार उन्मुक्त कर रखे है, वहाँ अपनी ज्ञान-गरिमासे भी उनका मार्ग-दर्शन किया है।
भगवान श्री महावीरने चार प्रकारके व्यक्ति बतलाये हैं-१. श्रुत (ज्ञान) सम्पन्न, २. शील (चारित्र) सम्पन्न, ३. श्रुत व शील सम्पन्न तथा ४. श्रुत व शील रहित । श्री नाहटाजी श्रुताराधनामें अहर्निश क्रियाशील हैं। उनका अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग वस्तुतः ही जैन-समाजके अन्य श्रद्धालुओंके लिए भी महान् प्रेरक है। यदि इस प्रकारके अनेक विद्वान् हो जायें, तो सचमुच ही जैन-संस्कृतिके वे चलते-फिरते सूचना केन्द्र हो सकते हैं। श्री नाहटाजीका सम्मान वस्तुतः उनकी श्रुताराधनासे होनेवाली कर्म-निर्जराके प्रति आत्मीय भावका प्रकटीकरण है।
व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १३३
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