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तथा मुनि जिनविजयजी आदि जैनसाहित्यके मर्मज्ञ, पुरातत्त्ववेता, प्रकाण्ड आलोचक व इतिहास-विशेषज्ञोंकी दृष्टिमें इनके कार्य स्तुत्य तथा महत्त्वपूर्ण हैं। फलतः आलोचना भारसे मुक्त होकर भी अपनी लेखनी इस मनीषी-द्वयकी अमूल्य कृतियोंकी सूची देनेसे विरत नहीं हो सकी है। कार्य या कृतित्व प्रयासकी कसौटी चाहते हैं और उनकी सफलता या असफलता पंडितोंपर निर्भर करती है। व्यक्तित्वकी परखके लिए वस्तुतः व्यक्तित्वकी अन्तर्दृष्टिके ज्ञानकी आवश्यकता होती है पर आज तक मानवमनीषा सतत अभ्यासके बावजूद भी किसी भी व्यक्तित्वकी सही परख करने में असमर्थ ही रही है। इसलिये कि समय, समाज, परिस्थिति और व्यक्तिकी चित्तवृत्तिके जितने अध्ययन हो सके हैं, सभी अध्ययनके प्रोसेसमें हैं। फलतः प्रोसेससे संतुष्ट होकर अन्तिमत्थमकी बातपर बल देना हास्यास्पद ही हुआ है। विज्ञानकी कसौटी
लिए तो स्थिर मानदंड हैं। इसीलिये उनके सिद्धान्त कथनमें बहधा एक्यरेसी देखी जाती है पर पदार्थके गुणात्मक परिवर्तनकी परिणति जिस चेतनाको जन्म देती है उसके गुणात्मक तथ्यके गुणात्मक अन्तद्वंद्वसे उनकी चेतना विधाओंका आकलन आज भी अधरमें लटका हुआ है । अतः मानव अन्तरात्माकी ग्रंथि खोलनेके प्रयत्न मात्र वाग्विलास होकर निर्णयके लिए किसी स्वस्थ मानदंडकी खोजमें अब भी व्यरत हैं। किन्तु सामाजिक चेतनाका यह अस्थिर मानदंड ही श्रेयस्कर है। इसलिये कि इसमें चेतनाकी स्वतंत्रताका आभास मिलता रहता है जिसे हम एंगिल आफ थाटस् कहते हैं । नाहटा बन्धुओंकी कृति भी एंगिल आफ् थाट्ससे द्रष्टव्य है क्योंकि रुचि विशेषकी विभिन्नता ही एकताकी कड़ी होती है । अतः समग्ररूपसे उद्देश्यके धरातलका मल्यांकन करनेवाले 'रस-साधकों व रसज्ञ आलोचकोंसे मेरा यही आत्मनिवेदन होगा, वैसे कोई जोर जबर्दस्ती नहीं है, मात्र सदाग्रह है जो अमान्य नहीं ही होगा। ऐसा विश्वास पालनेमें मुझे रत्ती भर भी संदेह नहीं दृष्टिगोचर होता । अन्यथा ये महाकवि भवभूतिकी मार्मिक उक्तिको ही दुहरा कर संतोष रखेंगे, कि
"उत्पत्स्यते च मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिः विपुला च पृथ्वी"
इस "सादा जीवन उच्च विचार"के प्रतीक शान्त व गम्भीर व्यक्तित्वमें कितनी वाक्यपटुता है, प्रत्युत्पन्न मति है, आशुकाव्य-स्फुरणके बीज हैं। इनके कुछ संस्मरणोंके उद्धरण इसे प्रमाणित करेंगे
बात बहुत पुरानी है। एक बार बीकानेरमें सर मनू भाई मेहताके भाई श्री वी० एम० मेहता जो महाराजाके प्रधानमन्त्री थे, की अध्यक्षतामें एक कवि सम्मेलनका आयोजन था। श्री भंवरलालजी वहाँ उपस्थित थे। अध्यक्षने आपसे भी कुछ सुनानेके लिए कहा। आप उठे और एक आशुकविकी भाँति आठ भाषाओंमें, जिनमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, अंग्रेजी, बंगला, हिन्दी भाषायें भी सम्मिलित थीं, एक कविता पढ़कर सुनायी। कवितामें भगवान महावीरकी स्तुति की जिसका संक्षयण इस प्रकार हआ है
"अष्ट भाषा मयैषा वर्द्धमानप्रभुस्तुतिः । स्वभक्त्या सकौतुकेन विक्रमाख्यपुरे कृतः ॥"
एक बार आप श्री अगरचन्दजीके साथ, राजस्थान हिन्दी साहित्य सम्मेलनके अवसरपर (रतनगढ़में) उपस्थित थे। वहाँ पुस्तकोंकी प्रदर्शनीमें आप दोनों महानुभाव अपनी रुचिके अनुसार पुस्तकें उलटपलट रहे थे। अगरचन्दजीके हाथ नेवारी लिपिकी कई प्रतियाँ आयीं। आपने देखा और समझनेकी भी चेष्टा की। किन्तु लिपिका कोई ओरछोर न मिला। आपने श्री भंवरलालजीसे उन्हें देखनेको कहा। आपने पुस्तकें लीं और वर्णमाला बनाने में व्यस्त हो गये। दूसरे दिन सारी प्रतियां पढ़कर चाचाजीको सुना दी तथा उसके सम्बन्धमें एक लेख भी प्रकाशित किया।
ऐसे ही एक बार आप बीकानेर जनसंघकी ओरसे श्री हरिसागरजीके पास उन्हें बीकानेर ले आनेके उद्देश्यसे नागौर पधारे । आपके साथ बीकानेरके कुछ सम्भ्रान्त व्यक्ति भी थे। श्री हरिसागरजी नागौरमें ही चातुर्मास बितानेके लिये वचनबद्ध थे। अनुनय, विनयके पश्चात् भी कुछ हल नहीं निकला। अन्तमें श्री ९८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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