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________________ आपके पूरक प्रतीक हुए। भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रकृतिके अद्वितीय समन्वय जहाँ आँसुओं की कीमत है, विरागका राग है और है अनुरागमें विरागकी अद्भुत झलक । हरखचन्दजी सम्भवतया आँसू और मुसुकान के बीच की कड़ी । धर्म उनका सहायक है, अर्थ उनकी प्रेरणा है और काम उनकी सृष्टिका संस्थान । शील और संकोच जो आदर और सम्मानकी भूमिका अदा करते हैं, आप दोनों भाइयोंको ईश्वरप्रदत्त हैं । मेरा तात्पर्य मात्र इतना ही है कि श्री भँवरलालजीकी परिधि इतनी शान्त व मनोहर है, इतनी सर्जनशील व प्रभुताविहीन है कि ऐसी परिस्थितिमें ही उनके सम्पूर्ण गुणोंकी परख हो सकती है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय व अपरिग्रह आदि जैनधर्मके मूलभूत सिद्धान्तोंकी विस्तृत व्याख्यायें हैं, विविध परिणतियाँ हैं । साधु व गृहस्थ धर्मो के पृथक्-पृथक् आचरण भी हैं । विधि - निषेधकी विभिन्न मर्यादाओं की भी सीमायें नहीं हैं । लेकिन सतत जागरूक व्यक्ति मत-मतान्तरों, दार्शनिक विवादों एवं विधि-निषेधोंसे ऊपर होता है । सिद्धान्त वस्तुतः आचरणकी मर्यादा निर्धारण करने में सहायक होते हैं । वे स्वयं आचरण नहीं होते । फलतः विश्वासों में तर्क, सिद्धान्तके निर्णयके लिए गौण बन जाते हैं । कर्तव्य श्रद्धा चाहते हैं और आचरण सामाजिक विश्वास । या थोड़ा ऊपर उठने पर हम कहेंगे कि आचरण आत्मविश्वास चाहते हैं। जिसमें परका भी समान अस्तित्व होता है । वस्तुतः परम्परा - निर्वाह अन्य वस्तु होती है और कर्तव्यनिष्ठा अलग । यदि कहीं दोनोंका सम्मिश्रण उपलब्ध होता है तो वह अद्भुत होता है । इसीलिये साधारण व्यक्तित्व से वह व्यक्तित्व विशेष हो जाता है और उसे हम महान् आत्मा कहनेको बाध्य होते हैं । श्री भँवरलालजी में जैनधर्म साकार दृष्टिगोचर होता है । यहाँ जो कुछ है, मनसा वाचा कर्मणा है द्विधा नहीं और इसीलिये द्विधा प्रति आवेश भी नहीं । आक्रोश नहीं और न ही शिकायत ही है क्योंकि आचरणमें किफायत नजर नहीं आती । यहाँ परम्परा है । परम्पराकी आनुभूतिक धरोहर है। तर्क और सिद्धान्तोंके मननकी चिन्तनधारा है । विश्वास और श्रद्धा है । तेरापंथ भी उनके लिए उतना ही सहज बोध्य है, जितना मन्दिर मार्ग । यहाँ धर्म बाह्याडम्बर नहीं जितना दिखावा है, वह लोकाचार है । फलतः आपकी साधना एकांगी नहीं, सर्वांगीण है । मुनि जिनविजय तथा मुनि कांतिसागर, कृपाचन्दसूरि और श्री सुखसागरजी मुनि पुण्यविजय, श्री हरिसागरसूरि, मणिसागरसूरि, कवीन्द्रसागरसूरि के सत्संगने आपको धर्म चेतना दी है तो मुनि नगराज, मुनि महेन्द्रकुमार 'प्रथम', जैसे व्यक्तित्वने आपको अपना स्नेह दिया है । बुद्धिगम्य ग्रहण आपकी मानसिक पुकार है, संस्कार जन्य स्वीकार आपके हृदयकी । नयनकी भीख भँवरलालजीको अनुकूल है, पर अन्तश्चेतनाकी पावन धारा, जिसमें आपका मन अवभृथ स्नान करता है, वहाँ आपका एक अलग अस्तित्व भी है । उस मानसतीर्थ में सबके लिए समान स्थान है । अनेकान्तवादी विचारधारा ही आपके एकान्त व सार्वजनिक चिन्तनका मार्ग प्रशस्त कर सकी है । सद्गुरु श्री सहजानन्दजी, जिन्हें देखने व सुननेका एक बार मुझे अवसर मिला है और जो आपके दीक्षागुरु भी हैं; मुझे यह लिखने का साहस देते हैं कि भँवरलालजी मन और वाणीसे अपने गुरुकी मुक्त अनुभूतिके कायल हैं । श्री सहजानन्दजी शुद्ध-बुद्ध अनुभूत योगके प्रतीक श्रमण रहे हैं । उनमें धर्मोकी, भारतीय दर्शनोंकी, और भारतीय नैतिक जीवन मूल्योंकी अद्भुत समन्विति रही है । भँवरलालजी में जो गौरव है, वह गुरुका है, परिवारका है, पूर्वजोंका है और है लोकाचारका मर्यादित व स्वीकृत संयोग । स्पष्टतः यह मनीषी महामानव समुद्रकी तरह गुरु गम्भीर है । समस्त संसारकी विचार-सरिता इस महासागर में निमज्जित होकर इसमें एकरस हो चुकी है । लगता है, भगवान् महावीर की वाणी "मित्ती मे सव्वभूएसु वैरं मज्झं न केणई" ने ही आपको आतिथ्यकी कामना दी है । आत्मकल्याण, लोक मंगल तथा विश्वजन हितायके जैनानुशासनका सार्वभौम उद्घोष आपका अभीष्ट है, इसीलिये आपकी धर्मदृष्टि उदार है । करुणा और दया ९० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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