________________
श्री मँवरलाल नाहटा : त्यक्तित्व एवं कृतित्व
शास्त्री, शिवशंकर मिश्र, एम. ए., साहित्यरत्न
जीवन स्वयं एक साधना है और सिद्धिकी प्रतीति भी। जीना, जीनेकी कामना और जीनेको जीवनका लक्ष्य बनाये रखना, तीनों ही चेष्टायें साधारण मानवजीवनको अभीष्ट होती हैं। पर महापुरुषों, चिन्तकों व मनीषियोंके जीवनकी कलायें इनसे सर्वथा भिन्न होती हैं। वस्तुतः अन्तर लक्ष्यमें है। जीनेके लिए जीना एक अलग चीज है और जीनेको शाश्वत बनाये रखने की साधना अलग है। इसी प्रवृत्तिगत भेदमें मानवजीवनकी साधना-विधाओंमें भी अंतर हो जाता है। भौतिक सुखकी खोजमें व्यस्त जीवनके क्रियाकलाप और आध्यात्मिक सुखकी सिद्धिकी साधना तथा सामाजिक सखसमद्धिकी कामनाको प्रतिफलित
ससाधनाओंमें पर्याप्त अन्तराल होता है परन्तु कुछ एक कर्मयोगी ऐसे भी होते हैं, जो भौतिक, आध्यात्मिक व सामाजिक सभी सुखोंके प्रयासमें सामंजस्य बनाये रखने में सफल होते हैं। ऐसे महामानव प्रायः विरले ही होते हैं। प्रारब्ध इनके लिए हस्तामलकवत् होता है। ये संचित कर्मके प्रातिभज्ञानके धनी होते हैं और इसीलिये इनके क्रियमाण कर्म इन्हें सशक्त बनाये रखने में समर्थ होते हैं। ऐसे विरल कर्मठ व्यक्तियोंका जीवन प्रायः आत्मोन्मुख ही होता है क्योंकि आसक्तिमें इनकी आस्था नहीं होती, केवल कर्म ही अथ होता है और वही इति भी। सम्मान, यश और प्रतिष्ठा इनके भोग्य नहीं। श्रद्धा और आदर इनको देय हैं, ग्राहय नहीं। सम्भवतया इसीलिये श्रेय और प्रेय दोनों ही इन्हें ढूँढते फिरते हैं। समाजकी सजग चेतनोयें इनके समक्ष स्वयं श्रद्धावनत होती हैं और इन्हें अपनी कृतिका सुयश प्राप्त करनेका सहसा अवसर प्राप्त हो जाता है।
अपनी स्वाभाविक अनुभतिको अभिव्यक्त करनेका जो मझे अवसर मिला है, उसकी प्रतीतिके आधार 'श्री नाहटा-बन्धु' हैं ।
डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदीने श्री अगरचन्द नाहटा और श्री भंवरलाल नाहटाको इसी नामसे पुकारा है और इनकी देनको विज्ञापनरहित साहित्य-साधनाकी अमर प्रवृत्तिकी संज्ञा दी है। मेरा अपना संपर्क दोनों ही चिन्तकोंसे रहा है । आप दोनों चाचा और भतीजे हैं । एक साधना है तो दूसरा सिद्धि । इनके पूरक प्रयत्न इतने मिश्रित हैं कि “को बड़ छोट कहत अपराधू, गनि गुन दोष समुझिहहिं साधू", महात्मा तुलसीदासकी विनम्र प्रार्थना ही सहायक हो पाती है। वैसे एक कारण है तो दूसरा कार्य, एक प्रतीति है तो दूसरा प्रतिफलन, एक ज्ञान है तो दूसरा भक्ति, या महाप्राण निरालाके शब्दोंमें एक विमल हृदय उच्छवास है तो दूसरा कान्तकामिनी कविताका प्रतीक । फलतः जीवन, जीवनकी विधि, उसकी गति व जीवनकी समस्त सारभूत प्रक्रियाओंमें अभेद समानता इन्हें पृथक रूपमें नहीं देख सकती। वैसे सेव्य-सेवक भावनाओंमें जो एकरसता है, वह अनिवार्य रूपसे इनमें ओत-प्रोत है। मुझे प्रसन्नता है कि भारतीय विद्वत्-समाजकी सहज बोध्य सर्जनशील चेतनाने इन दोनों ही महानुभावोंके अभिनंदनमें भी एकरसता व तादात्म्य बनाये रखने का प्रयास किया है। अभिनन्दन ग्रन्थके आयोजकोंमें अग्रणी श्री हजारीमल बांठियाके सदाग्रहने मझे श्री भंवरलालजीके व्यक्तिगत, सामाजिक, साहित्यिक व आध्यात्मिक जीवनकी झाँकी देनेकी प्रेरणा दी है। प्रस्तुत आकलन अंतरंग साहचर्यको कहाँ तक सजीव बना सकेगा, सहृदय पाठकोंकी प्रज्ञाचक्षु ही इसे विश्वास दे सकेगी । इस गम्भीर चेतना-पुंज सरस्वतीके वरद-पुत्रके जीवनका जितना भी अंश साकार हो सकेगा, उतनी अपनी समझ, शेष अपनी अल्पज्ञताकी विवशता ही होगी। शास्त्र कहता है-"क्वचित-खल्वाट
८८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org