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७२ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
कोटि कोटि हृदयगत प्रणाम
[ अभयकुमार भटेवरा, एम. कॉम., रतलाम (म० प्र०)
भारत प्राचीनकाल से ही मनीषियों का देश रहा है । ऋषभदेव, बुद्ध, महावीर से लेकर आज तक अनेक ज्ञानी एवं महात्यागी व्यक्तित्वों ने इस भूमि को अपने जन्म से पावन किया है । वेद, पुराण और शास्त्रों का जनक भी यही देश है और इसी देश ने सम्पूर्ण विश्व में ज्ञान, दर्शन व चारित्र की त्रिवेणी को प्रवाहित व प्रसारित किया है।
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के निर्माण में ऋषि, मुनियों एवं चिन्तकों का महान योगदान रहा है । देश में अनेक ऐसे सन्त हुए हैं जिन्होंने समस्त सांसारिक सुखों को त्याग कर मानव कल्याण व धर्म जागरण में अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया। ऐसे महामनीषियों की परम्परा में मालवरत्न ज्योतिविद् शास्त्रज्ञ पूज्य गुरुदेव १००८ श्री कस्तूरचन्द जी महाराज का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । में पूज्य
प्राकृतिक सम्पदा सम्पन्न मालव प्रान्त की जावरा नगरी में संवत् १९४८ गुरुदेव का जन्म धर्मपरायणा श्रीमती फूलबाई की पुनीत कुक्षि से हुआ । आपके पिताश्री का नाम सेठ श्री रतिचन्द जी चपलोत था । धर्मिष्ठ एवं सुसंस्कारी मातापिता के सान्निध्य से बाल्यावस्था से ही आपकी रुचि धर्म-ध्यान के प्रति थी ।
प्रकृति जितनी कोमल है, उतनी निष्ठुर भी है। अभी आपने शैशव के द्वार को पारकर यौवनावस्था में प्रवेश किया ही था कि आपको जीवन का बहुत ही कटु अनुभव हुआ । सम्पूर्ण मालवा को प्लेग ने अपनी भयंकर चपेट में ले लिया । चपलोत परिवार भी इस महामारी से बच न सका । परिवार में केवल तीन प्राणी ही शेष रहे, एक तो पूज्य गुरुदेव स्वयं दूसरे इनके बड़े भाई मुनि श्री केशरीमल जी महाराज एवं भाभी श्रीमती गेन्दीबाई । श्री केशरीमल जी महाराज थोकड़ों के विशिष्ट ज्ञाता थे ।
जग की इस क्षणभंगुरता को देखकर आपका संवेदनशील कोमल हृदय द्रवित हो उठा । सांसारिक नश्वरता से परिचित हो आपके मन में विरक्तता जाग उठी । पूर्व के धार्मिक संस्कारों के फलस्वरूप आप साधु-सन्तों की सेवा करने लगे । आपके पूर्व संचित पुण्य उदित हो उठे, आप में एक आध्यात्मिक स्फुरण जाग उठा ।
साधक के मन में उमंग हो तो साधना का मार्ग मिल ही जाता है । भाग्यवश आपके वैचारिक उत्थान के ऐसे समय में जावरा में जैनाचार्य पूज्यश्री खूबचन्दजी महाराज का चातुर्मास हुआ। उनके सत्संग एवं सारगर्भित प्रवचनों से आप अत्यन्त प्रभावित हुए। आपने सांसारिक प्रपंचों से मुक्त होकर वीतराग वेश को अपनाने का दृढ़ निश्चय कर लिया । फलस्वरूप विक्रम संवत् १६६२ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी गुरुवार को रामपुरा के लाल बाग में आम वृक्षों के गहरे झुरमुट में तुमुल जयघोषों के बीच हमारे चरित्रनायकजी ने गुरु श्री जवाहरलाल जी महाराज के पवित्र सान्निध्य में पूज्यश्री खूबचन्द जी महाराज के नेश्राय में भगवती दीक्षा ग्रहण की।
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