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जैन ज्योतिष एवं ज्योतिषशास्त्री
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समवायांग तथा अन्य प्राकृत करणानुयोग सम्बन्धी ग्रंथों में उपलब्ध है। (वही, स० ८८४)। इस प्रकार जैनागम में जो विवरण मिलता है वह गगनखण्ड तथा योजन के कोणीय माप तथा दूरीय माप के सम्बन्ध में गणितीयरूपेण प्रक्षिप्त है तथा रहस्यमय होते हुए सर्वथा यकता है। फलित ज्योतिष में तिथि, नक्षत्र, योग, करण, वार, समयशुद्धि, दिनशुद्धि की चर्चाएँ किस प्रकार विकसित हुई होंगी-इस हेतु अनेक ग्रंथों का अनुवाद कार्य लाभदायक सिद्ध हो सकेगा। इस ओर अभी ध्यान नहीं गया है तथा शोधकेन्द्रों में ज्योतिष एवं गणित का संचालन अब अत्यन्त आवश्यक है।
प्रायः ई० पू० ३०० से ई० प० ६०० (आदिकाल) सम्बन्धी रचनाओं में तिलोयपण्णत्ती, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, अंगविज्जा, लोकविजययन्त्र, एवं ज्योतिषकरण्डक उल्लेखनीय हैं। इन सभी में पंचवर्षात्मक युग मानकर तिथि, नक्षत्रादि का साधन किया गया है। यह युग श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से, जब चन्द्रमा अभिजित्त नक्षत्र पर रहता है, प्रारम्भ होता है । सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य के गमनमार्ग, परिवार, आयु के विवरण के साथ पंचवर्षात्मक युग के अयनों के नक्षत्र, तिथि और मास का विवरण दिया गया है। चन्द्रप्रज्ञप्ति में सूर्य की प्रतिदिन की योजनात्मक गति निकाली गयी है, तथा उत्तरायण और दक्षिणायन की वीथियों का अलग-अलग विस्तार निकाल कर सूर्य चन्द्र की गतियां निश्चित की गयी हैं। यही विवरण तिलोयपण्णत्ती में भी मिलता है। चन्द्रप्रज्ञप्ति में चन्द्र और सूर्य का संस्थान और तापक्षेत्र का संस्थान तिलोयपण्णत्ती सदृश वर्णित है। सोलहों वीथियों में चन्द्रमा का आकार समचतुस्र गोल बतलाया गया है। उन्हें युगारंभ में समचतुरस्र और उदय होने पर वर्तुल बतलाया है। ये अर्धगोलीय हैं । यह दृष्टिगत प्रक्षेप है। वेदांग ज्योतिष की अयन पद्धति भिन्न है।
छायासाधन विधि से दिनमान निकालने की विधि का वर्णन चन्द्रप्रज्ञप्ति (प्र० ६.५) में मिलता है। अर्धपुरुष प्रमाण छाया होने पर दिनमान का तृतीयांश व्यतीत हो जाता है। दोपहर के पूर्व यही छायाप्रमाण दिन अवशेष और दोपहर बाद पुदिन अवशेष बतलाया है। पुरुष प्रमाण छाया होने पर है दिन शेष, तथा डेढ़ पुरुष प्रमाण छाया ४ दिन शेष बतलाती है। पुरुष छाया के सिवाय गोल, त्रिकोण, लम्बी-चौकोर आदि वस्तुओं की छाया से दिनमान को निकाला जाता है। यह त्रिकोणमिति सम्बन्धी आकलन है। इसमें चन्द्रमा के साथ तीस मुहूर्त तक योग करने वाले नक्षत्र श्रवण, घनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल और पूर्वाषाढ़ा है। पैंतालीस मुहूर्त तक उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा और उत्तराषाढ़ा योग करते हैं तथा पन्द्रह मुहूर्त तक का योग चन्द्र के साथ शतभिषा, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा करते हैं। चन्द्रप्रज्ञप्ति (१६वा प्राभृत) में चन्द्र को स्वप्रकाशित बतलाकर इसके घटने-बढ़ने का कारण स्पष्ट किया है। यह आधुनिक सिद्धान्त नहीं है। त्रिलोकसार में उसका गमन ही कलाओं का कारण बतलाया गया है। १८वा प्राभूत सूर्यादि ग्रहों की चित्रा पृथ्वीतल से ऊँचाई प्रदर्शित करता है जो उदग्र रूप से ली गई है।
ज्योतिषकरण्डक में अयन तथा नक्षत्र लग्न का विवरण है। यह लग्न निकालने की प्रणाली मौलिक है :
लग्गं च दक्षिणाय बिसुवे सूवि अस्स उत्तरं अयणे।
लग्गं साई विसुवेसु पंचसु वि दक्खिणे अयणे ॥ अर्थात् अश्विनी और स्वाति ये नक्षत्र विषुव लग्गं बताये गये है। जिस प्रकार नक्षत्रों के विशेष विभाजन समूहों को राशि कहा जा सकता है, उसी प्रकार नक्षत्रों की इस विशिष्ट अवस्था को लग्न बतलाया गया है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल सम्भवतः ई० पूर्व हो सकता है।
७ ज्योतिषकरंडक, सटीक, रतलाम, १६२८
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