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३८६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
किसी मुनि के पुत्र थे । ऋषिपुत्र का वर्तमान में एक 'निमित्तशास्त्र' उपलब्ध है । इनके द्वारा रची गई एक संहिता का भी मदनरत्न नामक ग्रंथ में उल्लेख मिलता है । इन आचार्य के उद्धरण वृहत्संहिता की भट्टोत्पली टीका में मिलते हैं । इससे इनका समय वराहमिहिर के पूर्व में है । इन्होंने अपने वृहज्जातक के २६ वें अध्याय के ५वें पद्य में कहा है, “मुनिमतान्यवलोक्य सम्यग्धोरा वराहमिहिरो रुचिरांचकारा" इससे स्पष्ट है कि वराहमिहिर के पूर्व होरा सम्बन्धी परम्परा विद्यमान थी । इसी परम्परा में ऋषिपुत्र हुए। ऋषिपुत्र का प्रभाव वराहमिहिर की रचनाओं पर स्पष्ट लक्षित होता है ।
संहिता विषय की प्रारम्भिक रचना होने के कारण ऋषिपुत्र की रचनाओं में विषय की गम्भीरता नहीं है । किसी एक ही विषय पर विस्तार से नहीं लिखा है; सूत्ररूप में प्रायः संहिता के प्रतिपाद्य सभी विषयों का निरूपण किया है । शकुनशास्त्र का निर्माण इन्होंने किया है । अपने निमित्तशास्त्र में इन्होंने पृथ्वी पर दिखाई देने वाले, आकाश में दृष्टिगोचर होने वाले और विभिन्न प्रकार के शब्द श्रवण द्वारा फलाफल का अच्छा निरूपण किया है। वर्षोत्पात, देवोत्पात, तेजोत्पात उल्कोत्पात, गन्धर्वोत्पात इत्यादि अनेक उत्पातों द्वारा शुभाशुभत्व की मीमांसा बड़े सुन्दर ढंग से इनके निमित्तशास्त्र में मिलती है । '
कालकाचार्य - ये निमित्त और ज्योतिष के विद्वान थे । ये मध्य देशांतर्गत थे और यवन देशादि में गये थे तथा उस देश से रमल विद्या यहाँ लाये थे । इसका उल्लेख भोजसागरगणि नामक विद्वान ने अपने संस्कृत भाषा के " रमलशास्त्र" विषयक ग्रंथ में किया है ।२ जैन परम्परा में ज्योतिष के प्रवर्त्तकों में इनका मुख्य स्थान है । यदि यह आचार्य निमित्त और संहिता निर्माण न करते तो उत्तरवर्ती जैन लेखक ज्योतिष को पापश्रुत समझकर अछूता ही छोड़ देते । 3
इसके बाद ज्योतिष के विकास की धारा आगे बढ़ती है । कुछ लोग ईस्वी सन् ६००-७०० के आसपास भारत में प्रश्न अंग का ग्रीक और अरबों के सम्पर्क से विकास हुआ बतलाते हैं तथा इस अंग का मूलाधार भी उक्त देशों के ज्योतिष को मानते हैं पर यह गलत मालूम पड़ता है । क्योंकि जैन ज्योतिष जिसका महत्त्वपूर्ण अंग प्रश्नशास्त्र है, ईस्वी सन् की चौथी और पाँचवीं शताब्दी में पूर्ण विकसित था । इस मान्यता में भद्रबाहु विरचित " अर्ह च्चूड़ामणिसार" प्रश्नग्रंथ प्राचीन और मौलिक माना गया है। आगे के प्रश्नग्रन्थों का विकास इसी ग्रंथ की मूलभित्ति पर हुआ प्रतीत होता है । जैन मान्यता में प्रचलित प्रश्नशास्त्र का विश्लेषण करने से प्रतीत होता है। कि इसका बहुत कुछ अंश मनोविज्ञान के अन्तर्गत ही आता है । ग्रीकों से जिस प्रश्नशास्त्र को भारत ने ग्रहण किया है, वह उपर्युक्त प्रश्नशास्त्र से विलक्षण है । ४
ईसा की पाँचवीं सदी के उपरांत जैन ज्योतिष साहित्य में पर्याप्त अभिवृद्धि हुई । जैन ज्योतिषाचार्यों ने भी मुक्तहस्त से इस विषय पर अपनी कलम चलाई और यही कारण है कि आज जैन ज्योतिष ग्रंथों का विपुल भण्डार भरा पड़ा है। अब तो मात्र उनकी खोज, अध्ययन और प्रकाशन की आवश्यकता है । विस्तारभय के कारण मैं उन सबका यहाँ विवरण न देकर कुछ विशिष्ट जैन ज्योतिष साहित्य रचयिता और उनके ग्रंथों का नामोल्लेख ही करूँगा । यथा
१ भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ १०५
२
बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ, पृष्ठ २२७-२२८
३
भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ १०७
वही, पृष्ठ ११५
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