________________
३८२
far अभिनन्दन ग्रन्थ
विषयक विद्या को ज्योतिर्विद्या कहते हैं, जिस शास्त्र में इस विद्या का वह ज्योतिषशास्त्र है । इस लक्षण और पहले वाले ही अन्तर है कि पहले में गणित और फलित दोनों पर दूसरे में खगोल ज्ञान पर ही दृष्टिविन्दु रखा गया है । २
भारतीय ज्योतिष की परिभाषा स्कन्धत्रय सिद्धान्त, होरा, और संहिता अथवा स्कन्धपञ्च सिद्धान्त, होरा, संहिता, प्रश्न और शकुन ये अंग माने गये हैं । यदि विराट पञ्चस्कन्धात्मक परि भाषा का विश्लेषण किया जाय तो आज का मनोविज्ञान, जीवविज्ञान, पदार्थविज्ञान, रसायनविज्ञान, चिकित्साशास्त्र, इत्यादि भी इसी के अन्तर्भूत हो जाते हैं । 3
जहाँ तक इस विज्ञान के इतिहास का प्रश्न है, जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि वह सुदूर भूतकाल के गर्भ में छिपा हुआ है । यद्यपि इसका श्रृंखलाबद्ध इतिहास हमें आर्यभट्ट के समय से मिलता है तथापि इसके पूर्व के ग्रन्थ वेद, अंग साहित्य, ब्राह्मण साहित्य, सूर्यप्रज्ञप्ति, गर्गसंहिता, ज्योतिषकरण्डक एवं ज्योतिषवेदांग आदि ग्रन्थों में ज्योतिषशास्त्र विषयक अनेक महत्वपूर्ण बातों का विवरण मिलता है ।
वैदिककाल में ज्योतिष का अध्ययन होता था । यजुर्वेद में 'नक्षत्रदर्श' की चर्चा इसका प्रमाण है । छान्दोग्य उपनिषद् में नक्षत्र विद्या का उल्लेख है । प्राचीनकाल से ज्योतिष वेद के छः अंगों में गिना जाता रहा है। ऋग्वेद के समय वर्ष में बारह मास और मास में तीस दिन माने जाते थे । अधिक मास विषयक जानकारी भी ॠग्वेद में मिलती है। इसके अतिरिक्त कुछ नक्षत्रों के नाम भी आते हैं जिससे पता चलता है कि उस समय भी चन्द्रमा की गति पर ध्यान
दिया जाता था । यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा नहीं है । उसमें प्रसंगवश ऐसी बातें आ गई हैं जिससे हमें ज्ञान की जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त तैत्तिरीय अथर्ववेद में ग्रहणों की चर्चा है और कौषीतकी ब्राह्मण भी कराता है ।
कि ऋग्वेद कोई ज्योतिष विषयक ग्रन्थ उस समय के ज्योतिष विज्ञान विषयक संहिता में सत्ताइस नक्षत्रों की सूची है, ज्योतिष विषयक जानकारी उपलब्ध
लगध-मुनि का 'ज्योतिष वेदांग' हिन्दी ज्योतिष है । उसमें केवल सूर्य और चन्द्रमा की गतियों का ही की चर्चा भी नहीं की गई है । 10 ज्योतिष वेदांग या वेदांग ज्योतिष एक छोटी-सी पुस्तक है जिसके दो पाठ मिलते हैं - एक ऋग्वेद ज्योतिष, दूसरा यजुर्वेद ज्योतिष । दोनों के विषय और अधिकांश
१ ज्योतिषां सूर्यादि ग्रहाणां बोधकं शास्त्रम् ।
भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ २
२
३ वही, पृ० २
४
३०११०
७ ११२; ७|१|४; ७।२।१; ७ ७ १
सांगोपांग वर्णन रहता है, ज्योतिषशास्त्र के व्युत्पत्त्यर्थ में केवल इतना प्रकार के विज्ञानों का समन्वय किया गया है,
५
६ आपस्तम्बधर्मसूत्र ४।२८।१०
७
विक्रम स्मृति ग्रन्थ, पृष्ठ ७५४-५५
८ वही, पृष्ठ ७५६-५७
९
वही, पृष्ठ ७५७
१०
बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ, पृष्ठ २२४
Jain Education International
विज्ञान का प्राचीनतम ग्रन्थ माना जाता विचार किया गया है । उसमें अन्यान्य ग्रहों
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org