________________
हमारे ज्योतिर्धर प्राचार्य
। श्री प्रतापमलजी महाराज (मेवाड़भूषण)
वीर निर्वाण के पश्चात् क्रमशः सुधर्मा प्रमति देवद्धिगणी क्षमाश्रमण तक २७ ज्योतिधर आचार्य हुए हैं। जिनके द्वारा शासन की अपूर्व प्रभावना हुई। वीर सं० १८० में सर्वप्रथम देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने भव्य-हितार्थ वीर-वाणी को लिपिबद्ध करके एक महत्वपूर्ण सेवा कार्य पूरा किया। तत्पश्चात् गच्छ-परम्पराओं का विस्तार होने लगा। विक्रम सं० १५३१ में "लोकागच्छ" की निर्मल कीर्ति देश के कोने-कोने में प्रसारित हई। तत्सम्बन्धित आठ पाटानुपाट परम्पराओं का संक्षिप्त नामोल्लेख यहां किया गया है ।
भाणजी ऋषि भद्दा ऋषि लूना ऋषि भीमा ऋषि जगमाल ऋषि सखा ऋषि रूपजी ऋषि जीवाजी ऋषि
तत्पश्चात अनेक साधक वन्द ने क्रियोद्धार किया। जिनमें श्री जीवराजजी म० एवं हरजी मुनि विशेष उल्लेखनीय हैं। उनके विषय में कुछ ऐतिहासिक तथ्य प्रसिद्ध हैं, जो नीचे अंकित किये गये हैं।
मरु प्रदेश (मारवाड़) के पीपाड़ नगर में वि० सं०१६६६ में यति तेजपालजी एवं कंवरपालजी के ६ शिष्यों ने क्रियोद्धार किया। जिनके नाम-अमीपालजी, महीपालजी, हीराजा, जीवराजजी, गिरधारीलालजी एवं हरजी हैं। इनमें जीवराजजी, गिरधारीलालजी और हरजी स्वामी की शिष्य परम्परा आगे बढ़ी।
वि० सं० १६६६ में श्री जीवराजजी म. आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। उनके सात शिष्य हुए जो सभी आचार्य पद से अलंकृत थे जिनके नाम इस प्रकार हैं
पूज्यश्री पूनमचन्दजी म० पूज्यश्री नानकरामजी म० पूज्यश्री शीतलदासजी म. पूज्यश्री स्वामीदासजी म० पूज्यश्री कुन्दनमलजी म० पूज्यश्री नाथूरामजी म०
पूज्यश्री दौलतरामजी म. Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org