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________________ जैनदर्शन में आचार ३२७ सुलझाने की क्षमता है और सबसे बड़ी विशेषता यही है वह व्यक्ति की स्वाधीनता अक्षुण्ण रखता है। किसी को एक विशिष्ट विचार प्रणाली में या धर्म में शामिल होना अनिवार्य नहीं, किसी भी धर्म या साधना मार्ग को अपनाकर आत्म-कल्याण साधा जा सकता है और ऐसे अहंतों की संख्या भी कम नहीं है जो अपने आपको अपनी परम्परा में रखकर समता की साधना कर अहंत बने थे। भगवान महावीर परम अनाग्रही थे। उनकी उद्घोषणा थी कि वे जो कह रहे हैं वह समता धर्म ध्रव है, नित्य है और शाश्वत है। मेरे पहले भी अनेक जिनों ने कहा, आज भी कह रहे हैं और भविष्य में भी कहेंगे । यह धर्म चर्चा का विषय नहीं, निश्चित है, स्पष्ट है और आचरणीय है। इसके पालन के लिए अपने आप पर नियन्त्रण करना होता है, सादगी लानी होती है, तप सहज बन जाता है। जिस आचार का पालन स्वयं से प्रारम्भ करना होता है, दूसरा क्या करता है यह देखने की जरूरत नहीं, फल की आशा नहीं, दूसरों से अपेक्षा नहीं, क्योंकि वह इस निष्ठा पर आधारित है कि शुभ का फल निश्चित ही शुभ ही होने वाला है। जिसके पास कल्पवृक्ष हो वह जितना सन्तुष्ट और तुष्ट रहता है उतना ही इस नीति धर्म का पालन करने वाला। यह निष्ठा कि शुभ का फल शुभ ही मिलने वाला है उसे धीरज बँधाता है। वह यदि फल-प्राप्ति में विलम्ब हो तो भी क्ष भित नहीं होता । जैन परम्परा की नीति विधा सार्वजनिक, सर्वकालीन और जनता की है इसलिए जन-नीति की पोषक है, जनता की है। क्योंकि उसके पीछे अनुभव है और उस अनुभव ने जैनधर्म को आचार धर्म बनाया है, जो स्व-पर-कल्याणकारी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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