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जैनदर्शन में भावना विषयक चिन्तन
] डा० श्रीमती शान्ता भानावत एम० ए०, पी-एच० डी०
(प्रिंसीपल, वीर बालिका महाविद्यालय, जयपुर (राज.). भावना : अर्थ और परिभाषा
भावना का जीवन में बड़ा महत्त्व है। किसी भी विषय पर मनोयोगपूर्वक चिन्तन करना या विचार करना भावना है । चिन्तन करने से मन में संस्कार जागृत होते हैं । जैसा चिन्तन होगा, वैसे ही संस्कार बन जायेंगे । कहा भी जाता है--जैसी नीयत वैसी बरकत । अर्थात् जैसी भावना होगी, वैसा ही फल मिलेगा। अतः भावना एक प्रकार का संस्कार अथवा संस्कारमूलक चिन्तन है। इसे हम विचारों की तालीम (निंग) भी कह सकते हैं।
'आवश्यक सूत्र' के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य हरिभद्र ने भावना की परिभाषा देते हुए कहा है- 'भाव्यतेऽनयेति भावना' अर्थात जिसके द्वारा मन को भावित किया जाय, संस्कारित किया जाय, उसे भावना कहते हैं। आचार्य मलयगिरि ने भावना को परिकर्म अर्थात् विचारों की साजसज्जा कहा है। जैसे शरीर को तेल, इत्र, अंगराग आदि से बार-बार सजाया जाता है, वैसे ही. विचारों को अमुक विचारों के साथ बार-बार जोड़ा जाता है।२ आगमों में कहीं-कहीं भावना को अनुप्रेक्षा भी कहा गया है। 'स्थानांग सूत्र' में ध्यान के प्रकरण में चार अनुप्रेक्षाएं बताई गई है। वहाँ अनुप्रेक्षा का अर्थ भावना किया है । अनुप्रेक्षा का अर्थ है-आत्मचिन्तन । आचार्य उमास्वाति ने भी भावना के स्थान पर अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग किया है और कहा है-भगवद् कथित विषयों पर चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी भावना के स्थान पर 'अणुवेक्खा' शब्द का प्रयोग किया है। उन्होंने बारह भावना पर एक ग्रन्थ भी लिखा है, जिसका नाम है "बारस अणुवेक्खा "।
जैन आचार्यों ने भावना के सम्बन्ध में बड़ा ही गहरा और व्यापक विश्लेषण किया है।४ सचमुच भावना का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि वह सामान्य चिन्तन से प्रारम्भ होकर जप और ध्यान की उच्चतम भूमिका तक चला जाता है । आगमों में भावना को कहीं अत्यन्त वैराग्य प्रधान आत्मविचारणा के रूप में लिया है, कहीं मनोबल को सदृढ़ करने वाली साधना के रूप में, कहीं चारित्र को विशुद्ध रखने वाले चिन्तन और आचरण को भी भावना के रूप में बताया गया है तथा मन के विविध शुभाशुभ संकल्प-विकल्पों को भी भावना बताया है।
१ आवश्यक ४, टीका । २ बृहत्कल्पमाष्य, भाग २, गाथा १२८५ की वृत्ति, पृ० ३६७ ।
स्थानांग ४१ ४ भावना विषयक विस्तृत अध्ययन के लिए देखें-'भावना योग' (लेखक-आचार्य सम्राट
श्री आनन्द ऋषिजी : संपादक-श्रीचन्द सुराना)
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