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मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
जो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त हुआ व हो रहा है और होगा वह द्रव्य है । इस कथन का आशय है कि वह अपने विविध परिणामों में परिणत होता है। अपनी पर्यायों में द्रवित होता है क्योंकि बिना पर्याय का द्रव्य नहीं हो सकता और बिना द्रव्य के पर्याय नहीं हो सकते । द्रव्य गुणात्मक होता है उसके विभिन्न रूपान्तर ही पर्याय हैं । द्रव्य के बिना गुण नहीं होते हैं तो गुणों के बिना द्रव्य भी नहीं रह सकता। फलितार्थ यह निकला कि जो उत्पाद व्ययशील होकर भी ध्रुव है और गुण पर्याय से युक्त है वही द्रव्य है गुणपर्यायवद द्रव्यम ||३७| द्रव्य, गुण और पर्याय परस्पर भिन्न है अथवा अभिन्न हैं। प्रत्युत्तर में कहा गया कि द्रव्य, गुण और पर्याय में परस्पर अन्यत्व तो अवश्य है किन्तु पृथक्त्व नहीं है। वस्तुओं में जो मेद पाया जाता है वह दो प्रकार का है-अभ्यस्व रूप और पृयक्व रूप ।
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अन्यत्व रूप और पृथक्त्वरूप में क्या अन्तर है ? तद्रूपता न होना अन्यत्व है और प्रदेशों की भिन्नता पृथक्त्व है जिस प्रकार मोती व मोती का श्वेतरूप (सफेदी) एक ही वस्तु नहीं है फिर भी दोनों के प्रदेश पृथक्-पृथक् नहीं है । परन्तु दण्ड और दण्डी में पृथक्त्व है। दोनों को अलग किया जा सकता है । द्रव्य, गुण और पर्याय में इस प्रकार का पृथक्त्व नहीं है । क्योंकि द्रव्य के बिना गुण और पर्याय नहीं हो सकते और गुण एवं पर्याय के बिना द्रव्य नहीं हो सकता । द्रव्य जिन-जिन पर्यायों को धारण करता है उन उन पर्यायों में स्वयं ही उत्पन्न होता है । जिस प्रकार एक ही स्वर्ण कुण्डल कंकण और अंगूठी के रूप में बदल जाता है । आत्मा कभी मनुष्य बनता है तो कभी देव तो कभी नारक बनता है तो कभी तिर्यञ्च । कीट, पतंग, पशु, मनुष्य नारी आदि अनेक रूप धारण करता; परन्तु इन सर्व पर्यायों में उसका आत्मभाव कमी नहीं बदलता रहता है । 'न सा जाइ नसा जोणि जत्थ जीवो न जाइ' कोई ऐसी योनि, कोई ऐसी जाति नहीं बची जहाँ यह आत्मा जाकर नहीं आई हो । परन्तु मूल आत्मपर्याय ज्यों की त्यों रही। एक ही वस्तु पर्याय प्रतिक्षण बदलते रहते हैं, किन्तु वस्तु का वस्तुत्वभाव कभी नहीं बदलता द्रव्यत्यभाव भी नहीं बदलने वाला है।
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द्रव्यों का वर्गीकरण – मूलरूप में द्रव्यों के दो भेद हैं- जीव और अजीव जीवो उपयोग लक्खणो - उत० २८।१० । जीव द्रव्य चेतना एवं उपयोग व्यापारमय है । अजीव द्रव्य के पाँच मेद हैं- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच द्रव्य अचेतन होते हुए भी परस्पर में बहुतसी विलक्षण विसदृश और असमान जातीय है । जीवद्रव्य भी यद्यपि अनन्त है पर वे समान जातीय और सदृश है। उनमें विशेष मौलिक भेद नहीं है, किन्तु इन पाँचों अजीव द्रव्यों में मौलिक भेद नहीं है । इसी पांचों द्रव्यों को अलग-अलग और जीव द्रव्य को एकरूप में परिगणित करके द्रव्यों के दो भेद भी कहे हैं । यही षड़द्रव्य हैं । बन षड्द्रव्यों में पुद्गल मूर्त है और शेष जीव अधर्म, धर्म, आकाश और काल अमूर्त है। जिसमें वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श हो, वह मूर्त अन्यथा अमूर्त वैशेषिकदर्शन में शब्द को आकाश का गुण कहा गया है। शब्दाकाशगुणम् तर्कसंग्रह। परन्तु शब्द वस्तुतः गुण है ही नहीं पुद्गल की एक पर्याय विशेष ही है। गुण की परिभाषा है जिसकी सत्ता द्रव्य में सदा उपलब्ध होती हो । जब दो पुद्गल स्कन्ध परस्पर टकराते हैं तभी उसमें से शब्द प्रस्फुटित होते हैं । अतः शब्द पुद्गल का ही पर्याय है। आकाश रूप द्रव्य का गुण शब्द नहीं है। अवगाहन है। अवगाहन की परिभाषा है अन्य सर्व द्रव्यों को अवकाश देना । धर्म द्रव्य का गुण गति हेतुत्व गति में सहायक होना है ।
"चलण सहाओ धम्मो " - गतिशील द्रव्यों की गति में निमित्त होना अपमं द्रव्य स्थिति हेतुत्व है । स्थितिशील द्रव्यों की स्थिति में सहायक होना । कहा हैगति स्थित्युपरो धर्माधर्मयो उपकारः ।
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