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जैन संस्कृति में : अहिंसा के इतिहास की सुनहरी कड़ियाँ
२६ दे सकते, तो उसे मारने का आपको क्या अधिकार है ? पैर में लगा जरा-सा कांटा जब हमें बेचैन कर देता है, तो जिनके गले पर छुरियाँ चलती हैं, उन्हें कितना दुःख होता होगा ? यज्ञ करना बुरा नहीं है । वह अवश्य होना चाहिए। परन्तु ध्यान रखो कि वह विषय विकारों के पशुओं की बलि से हो, न कि इन जीवित देहधारी मूक पशुओं की बलि से । सच्चे धर्म यज्ञ के लिए आत्मा को अग्निकुण्ड बनाओ, उसमें मन-वचन और काया के द्वारा शुभ प्रवृत्ति रूप घृत उँडेलो । अनन्तर तपअग्नि के द्वारा दुष्कर्म का ईंधन जलाकर शान्ति रूप प्रशस्त होम करो। "
इस प्रकार भगवान् महावीर ने हिंसात्मक यज्ञों का विरोध कर अहिंसा-तप आदि रूप यज्ञों का निरूपण किया तथा प्रचलित मांसाहार का सबल स्वर में घोर विरोध किया । विरोध की आवाज इतनी प्रचण्ड थी कि स्वार्थी धर्मान्ध व्यक्ति अपने स्वार्थों पर होने वाले आघातों से आहत होकर कुछ समय के लिए कुलबुला उठे । किन्तु शान्ति के इस महान् देवदूत की एकाग्र तपस्या व उसकी अहिंसा परायण निष्ठा के सम्मुख एक दिन उन्हें नतमस्तक होना पड़ा। परिणामतः जो व्यक्ति मांस व यज्ञ प्रिय थे, उनके शुष्क हृदयों में करुणा का अजस्र स्रोत प्रवाहित हो उठा ।
भगवान् महावीर और बुद्ध के पश्चात् तो अहिंसा भावना की जड़ भारत के मानस में इतनी अधिक गहरी जमी कि समस्त भारतीय धर्म का वह हार्द बन गई । तात्कालिक बड़े-बड़े प्रभावशाली ब्राह्मणों व क्षत्रियों को उसने अपनी ओर आकर्षित कर लिया। सामाजिक, धार्मिक आदि उत्सवों में भी अहिंसा ने अपना प्रभाव जमा लिया । सर्वशान्ति का साम्राज्य फैल गया । भगवान् महावीर ने विश्व को जो अनेक प्रकार की देन दी हैं, उनमें यह अहिंसा सम्बन्धी देन सर्वोपरि है ।
भगवान् महावीर तथा बुद्ध द्वारा उपदिष्ट अहिंसा और करुणा तत्त्व को सम्राट् चन्द्रगुप्त, अशोक तथा उसके पौत्र संप्रति ने और अधिक प्रतिष्ठित एवं व्यापक बनाया, इतिहास इसका साक्षी है । कलिंग युद्ध में नर-रक्त को बहते देखकर अशोक का हृदय करुणार्द्र हो उठा, और उसने भविष्य में युद्ध न करने का संकल्प कर लिया । अशोक ने अहिंसा और करुणा के सन्देश को शिलालेखों द्वारा स्थान-स्थान पर उत्कीर्ण कराके प्रचारित किया । अशोक के पौत्र सम्राट् सम्प्रति ने अहिंसा की भावना को अपने अधीन राज्यों तक ही सीमित नहीं रखा, वरन् राज्यों के सीमावर्तीप्रदेशों में भी दूर-दूर तक फैलाकर उसका प्रबल प्रचार किया । बारहवीं सदी में आचार्य हेमचन्द्र ने गुर्जरपति सिद्धराज को अहिंसा की भावना से प्रभावित कर एक बहुत बड़ा आदर्श उपस्थित किया । सिद्धराज के राज्य में जहाँ देवी-देवताओं के समक्ष नानाविध हिंसाएं होती थीं, वे हिंसाएँ सब रुक गईं । सिद्धराज का उत्तराधिकारी महान् सम्राट कुमारपाल भी अहिंसा में पूर्ण निष्ठा रखता था । उसने अहिंसा भावना का जितना विस्तार किया वह इतिहास में बेजोड़ है । उनकी दयार्द्रवृत्ति के लिए एक सुप्रसिद्ध जनश्रुति है कि - 'कुमारपाल अपने राज्य के अश्वों को पानी मी छान-छानकर पिलाया करता था ।' उसकी "अमारि घोषणा" अत्यन्त लोकप्रिय बनी, जो अहिंसा भावना की एक विशिष्ट द्योतक थी ।
अहिंसा भावना के प्रचार में जहां अनेकों वरिष्ठ व्यक्तियों के हाथ अग्रसर रहे हैं, वहाँ निर्ग्रन्थ परम्परा के श्रमणों का भी इसमें विशेष श्रेय रहा है । वे हिमालय से कन्याकुमारी तक, अटक से कटक तक पद यात्रा करके, अनेक मुसीबतों व अनेक कष्टों को झेलकर, जन-जन को
१ तवो जोई, जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मेहा संजम जोग सन्ती, होमं हुणामि इसिणं पसत्थ ॥
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— उत्तराध्यन सूत्र, अ० १३, गा० २४ For Private & Personal Use Only
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