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करुणा के अमर देवता
चरित्रनायक श्री का प्रथम चातुर्मास दादा गुरुदेव श्री नन्दलाल जी महाराज के पावन चरणों में “बड़ी सादड़ी" हुआ ।
प्रगति की ओर बढ़ते चरण ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसे हमारे चरित्रनायक श्री जी के विगत सभी चातुर्मास शानदार रहे हैं। उन सभी चातुर्मासिक झलकियों का यहाँ वर्णन किया जाय तो स्वतन्त्र रूप से एक विशालकाय ग्रन्थ तैयार हो सकता है। पर पाठकवृन्द को मुझे यहीं नहीं उलझाना है, आगे ले जाकर चरित्रनायक के गरिमा-महिमावंत ज्योतिर्मय जीवन की ओर उनका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ। इसीलिए कुछेक चातुर्मासी कल्पों का दिग्दर्शन ही अत्युत्तम रहेगा।
"काले कालं समायरे" इस शास्त्रीय सूक्त्यनुसार नवदीक्षित मुनि को काफी सावधानी रखनी पड़ती है। उभयकालषडावश्यक पर अनुचिन्तन, उभयकाल निश्रित उपकरणों की प्रतिलेखना, गुरुदेवों की परिचर्या, वैयावृत्त्य, नित्य नवीन ज्ञानोपार्जन में तत्परता, कंठस्थ ज्ञान की पुनरावृत्ति यथासमय स्वाध्याय ध्यान, बिना आज्ञा कहीं जाना नहीं एवं बिना आज्ञा कुछ भी गृहस्थों के यहां से लाना नहीं। उपरोक्त दैनिकचर्याओं को आत्मसात् करने में नवदीक्षित मुनि श्री काफी कुशल कोविद रहे हैं। अल्प आयु होने पर भी कुछ ही महीनों में आपने आशातीत योग्यता, गुरु वत्सल्यता, लोकप्रियता एवं अध्ययन-अध्यापन के प्रति अच्छी रुचि का परिचय दिया। आचार-विचार व्यवहार सम्बन्धी बातें जानकर ही आप नहीं रहे, अपितु साध्वाचार की तीक्ष्ण धार पर मुस्कराते मन आप आगे बढ़ने में रहे हैं। भगवान महावीर की वाणी में
आणाणिद्दे सकरे, गुरूणमुववायकारए। इंगियागारसंपण्णे, से विणीए त्ति वुच्चई ।।
-उत्त० ११२ वही साधक विनीत कहलाता है-जो गुरु की आज्ञा का पालन करने वाला हो, गुरु महाराज के निकट रहता हो एवं गुरुदेव के संकेतों को कार्यान्वित करने में सदा तत्पर रहता हो। और भी कहा है
वसे गुरुकुले निच्चं, जोगवं उवहाणवं । पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लद्धमरिहई ॥
-उत्त० १२१४ जो सदा गुरुकुल में रहने वाला हो, समाधिभाव में रहने वाला हो, उपधान तप करने वाला एवं प्रिय करने और प्रिय बोलने वाला हो, वही शिक्षा प्राप्त करने में
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