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मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
हो उठा । भगवन्त ने उत्कृष्ट निनाद से मिष्ट - शिष्ट मेघघोष की तरह गम्भीर सभी जगह सुनाई देनेवाला, भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के विभिन्न सन्देहों का एक ही साथ एक बात में निराकरण करने वाला दिव्य प्रवचन प्रारम्भ किया । मानो प्रवचन के महान् लाभ से कोई वंचित न रह जाय, इस कारण प्राणी प्राणी और ज्ञानी ध्यानी में दौड़ादौड़ एवं होड़ा-होड़-सी लगी थी ।
दशार्णभद्र ने भी सोचा - "मुझे भी अतिशीघ्र प्रभु दर्शन के लिए जाना है । क्योंकि प्रभुदर्शन, वाणी, चरणस्पर्श, सेवा भक्ति एवं महा मांगलिक का सुनना पुण्यवंत
ही मिलता है | अतः ऐसा सुनहरा मौका मुझे सहज में ही मिला है । घर बैठे गंगा आई, फिर प्यासा क्यों रहूँ और कर्मदल-मल को दूर करू ? अतएव क्षणमात्र का भी प्रमाद न करते हुए मुझे सेवा में पर्युपासना में पहुँचना अत्यन्त अत्युत्तम रहेगा। दूसरे ही क्षण अपर विचारों की तरंगें उठ खड़ी हुई "क्या सीधी-सादी पोशाक में जैसा खड़ा हूँ, वैसा ही चला जाऊँ ? नहीं नहीं । यह तो सामान्य वैभव का दिग्दर्शन- प्रदर्शन होगा । साधारण वेश में तो नगर के प्रत्येक नर-नारी जा ही रहे हैं। मुझमें और साधारण जन में परिधान - वाहन का अन्तर तो होना ही चाहिए ।
मुझे पूर्वकृत पुण्य प्रताप से अपार धनराशि, दास-दासी एवं द्विपद-चतुष्पद आदि सभी प्रकार की सम्पत्ति मिली हैं । उसका उपयोग करना ही तो श्रेयस्कर होगा । वर्ना एक दिन तो इस सम्पदा का विनाश सुनिश्चित है । अतएव प्रभु दर्शन के बहाने सम्प्रति सम्पत्ति का सांगोपांग रूप से प्रदर्शन करना समयोचित ही रहेगा । इससे समीपस्थ राजा-महाराजाओं पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा और यत्र-तत्र सर्वत्र सभी को ऐसा मालूम हो जायेगा कि नृप दशार्णभद्र के पास अटूट खजाना विद्यमान है । आगन्तुक जन समूह भी मेरे विपुल वैभव का सहज में ही दर्शन भी कर सकेगा और अनुभव भी उनको ऐसा हो जायेगा कि - नृप दशार्णभद्र के सिवाय इतना विशाल आडम्बर और ठाट-बाट के साथ अन्य कोई भी सम्राट् आज दिन तक भगवान महावीर के दर्शन के लिए नहीं आया । 'एक पन्थ अनेक काज' काम का काम, नाम का नाम और दर्शन के बहाने वैभव का प्रदर्शन जहाँ-तहाँ मेरे नाम की माला फिरने लगेगी । बस सम्पूर्ण लाव-लश्कर के साथ जाने की नृप ने ठान ली। उत्साह उमंग के साथ-साथ राजा के मन-मस्तिष्क में भरी नदी की तरह अभिमान का वेग भी बढ़ने लगा । " भारी से भारी तैयारी करो" चतुरंगिणी सेनापतियों को नृप की ओर से शीघ्र आदेश मिला । तदनुसार सुवर्णाभूषणों से भूषित हजारों हाथी-घोड़े रथों की पंक्तियाँ आ खड़ी हुईं । जिनमें नृप दशार्णभद्र का गजरत्न मानो देवेन्द्र सवारीवत् और प्रमुखा रानी का भी इन्द्राणीवत् भास रहा था । इस प्रकार हजारों पैदल सेना से परिवृत हुए, समस्त परिवार से घिरे हुए गाने-बजाने की जयघोष से दशों दिशाओं को पूरित करते हुए नृप आगे बढ़ने लगे । जनता असीम वैभव का दर्शन का आश्चर्योदधि में डूब रही थी । इतना वैभव ! हमारे नाथ के पास । युग-युग तक जीओ हमारे भूपति ! दशार्णभद्र ! इस प्रकार जनता भवनोपरि से शुभ मंगल कामना से सुमनों को बिखेर रही थी
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