________________
मालवा में जैनधर्म : ऐतिहासिक विकास २४५ वाङमय में सर्वप्रथम ग्रन्थ है जिसका आश्रय उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर-दिगम्बर विद्वानों ने लिया है। सिद्धसेन ही जैन-परम्परा का आद्य संस्कृत स्तुतिकार है।' सिद्धसेन दिवाकर ने तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका भी बड़ी विद्वत्ता से लिखी है । इस ग्रन्थ के मूल लेखक को दिगम्बर सम्प्रदाय वाले उमास्वामि और श्वेताम्बर सम्प्रदाय वाले उमास्वाति बतलाते हैं। सिद्धसेन का कल्याणमंदिर स्तोत्र ४४ श्लोकों में है । यह पाश्र्वनाथ भगवान का स्तोत्र है। इसकी कविता में प्रसाद गुण कम है और कृत्रिमता एवं श्लेष की भरमार है परन्तु प्रतिभा की कमी नहीं है। इसकी महत्ता का पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है। इसके अंतिम भिन्न छन्द के एक पद्य में इसके कर्ता का नाम कुमुदचन्द्र सूचित किया गया है; जिसे कुछ लोग सिद्धसेन का ही दूसरा नाम मानते हैं। दूसरे पद्य के अनुसार यह २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की स्तुति में रचा गया है । भक्तामर के सदृश होते हुए भी यह अपनी काव्य कल्पनाओं व शब्द योजना में मौलिक ही है। हे जिनेन्द्र ! आप उन भक्तों को संसार से कैसे पार कर देते हैं, जो अपने हृदय में आपका नाम धारण करते हैं ? हाँ जाना, जो एक मशक भी जल में तैर कर निकल जाती है, वह उसके भीतर भरे हुए पवन का ही तो प्रभाव है। हे जिनेश ! आपके ध्यान से भव्य पुरुष क्षणमात्र में देह को छोड़कर परमात्म दशा को प्राप्त हो जाते हैं, क्यों न हो ? तीन अग्नि के प्रभाव से नाना धातुएँ अपने पाषाण भाव को छोड़कर शुद्धसुवर्णत्व को प्राप्त कर लेती है। सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित वर्द्धमान-द्वात्रिंशिका दूसरा स्तोत्र है । यह ३२ श्लोकों में भगवान वर्द्धमान महावीर की स्तुति है। इसमें कृत्रिमता एवं श्लेष नहीं है । प्रसाद गुण अधिक है । भगवान महावोर को शिव, बुद्ध, हृषीकेश, विष्णु एवं जगन्नाथ मानकर प्रार्थना की गई है। इन दोनों स्तोत्रों में सिद्धसेन दिवाकर की काव्यकला ऊंची श्रेणी की है।
राजपूतकालीन मालवा में जैनधर्म-यदि गुप्तकाल भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल है, तो राजपूतकाल मालवा में जैनधर्म के विकास तथा समृद्धि के दृष्टिकोण से स्वर्णकाल रहा है। इस युग में कई जैन मंदिरों का निर्माण हुआ। इसके प्रारम्भिक काल में बदनावर में जनमंदिर विद्यमान थे। इसका विवरण डॉ० हीरालाल जैन इस प्रकार देते हैं कि जैन हरिवंशपुराण की प्रशस्ति में इसके कर्ता जिनसेनाचार्य ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि शक संवत् ७०५ (ईस्वी सन् ७८३) में उन्होंने वर्धमानपुर के पाालय (पार्श्वनाथ के मंदिर) की अन्नराजवसति में बैठकर हरिवंशपुराण की रचना की और उसका जो भाग शेष रहा उसे वहीं के शांतिनाथ मंदिर में बैठकर पूरा
१ The Jain Sources of the History of Ancient India, page 150-51 २ संस्कृति केन्द्र उज्जयिनी, पृष्ठ ११६ ३ मारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृष्ठ १२५-२६ ४ संस्कृति केन्द्र उज्जयिनी ५ मारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृष्ठ ३३२-३३३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org