SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६० संदेश मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ मेरे परम तारक महामुनि विक्रम सं० १९७८ का जयपुर नगर का यशस्वी वर्षावास सम्पन्न करके गुरुदेव वाद कोविद श्री नन्दलालजी महाराज, भावी उपाध्याय श्री कस्तूरचन्दजी महाराज, गायन कला निधान श्री सुखलालजी महाराज, तपस्वी श्री छोटेलालजी महाराज, सेवाभावी श्री भैरूलालजी महाराज, ठा० ५ मेरी जन्मभूमि देवगढ़ ( मदारिया) में पधारे । जनता गुरुदेव श्री के प्रवचनामृत का एवं धर्म ध्यान का बहुत लाभ ले रही थी, यह सब जानकर मैं भी दर्शन करने के लिए सेवा में जा पहुँचा । सहसा मुनिश्री जी ने पूछ लिया कि - "यहाँ एक सेठ और तीन बच्चे मुनि-धर्म स्वीकार करने वाले थे, वे कहाँ हैं ?" मैंने उत्तर दिया Jain Education International "गुरुदेव ! वे मेरे पिता श्री मोड़ीरामजी गांधी और मेरे दो भाई थे, प्लेग की बीमारी में परलोक सिधार गये । केवल मैं ही धर्म के एवं आपकी कृपा से बच पाया हूँ ।" गुरुदेव ने तुरन्त फरमाया - " बस बाप का कर्जा बेटा चुकाता है, अत: तुम भी अब दीक्षा लेकर अपने पिता के कर्ज से मुक्त बनो ।” मैंने कहा - "जो आज्ञा ।" फिर क्या था अतिशीघ्र ही श्रावकाचार का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया गया । उस समय गुरुदेव श्री नन्दलालजी महाराज के पैर में एक फोड़ा भी हो गया था, एक तरफ इलाज चल रहा था, दूसरी तरफ मेरा अध्ययन और वैराग्य वृद्धि पा रहा था। उस समय देवगढ़ में तीनों समय धर्म की गंगा बह रही थी । स्थानीय तथा आसपास के गांवों की जनता नदी पूर की तरह उमड़ उमड़ कर धर्म का लाभ ले रही थी । यह कार्यक्रम लगभग डेढ़ महिने तक जलता रहा, इस अवधि में ही पं० गुरुदेव उपाध्याय श्री कस्तूरचन्दजी महाराज ने मुझ पर असीम कृपा करके दीक्षा जैसे उच्च पद के लायक बना दिया। अपने अनेक कौटुम्बिक विघ्न-बाधाओं के अन्तराय कर्म को भी मिटा दिया। अन्त में एक वर्ष बाद वही मैं ( प्रताप ) आपके समीप मन्दसौर में पहुँच गया । सानन्द दीक्षा भी सम्पन्न हुई । आज जो मैं आत्म-साधना कर रहा हूँ, यह सब आप गुरुदेव ( उ० पं० श्री कस्तूरचन्दजी महाराज) का ही प्रबल प्रताप है । इसीलिए आप मालवरत्न उपाध्याय श्री कस्तूरचन्दजी महाराज मेरे भवतारक हैं । आप शुभ स्वस्थ दीर्घायु बनें और समाज-संघ एवं मुझको मार्गदर्शन देते रहें, यही मेरी प्रतिपल मंगलकामना है । - मुनि प्रताप For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy