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६० मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ स्थानांगसूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र आदि-आदि जो अति कठिनता से समझे जाते हैं, उन आगमों का अध्ययन भी आपने पूर्ण किया।
उसके बाद भी आपके अध्ययन का क्रम चालू रहा। वृहत् आगमों के अध्ययनअध्यापन से आपके तत्त्वज्ञान-कोष में बहुमुखी अभिवृद्धि हुई। अनुभव का क्षेत्र विशाल बना एवं प्रवचनों में प्रौढ़ता-रोचकता एवं लालित्य भाव आये। आज भी वही अध्ययन का क्रम गतिशील है। वर्षाकाल के अलावा भी आप अधिक से अधिक आगम-वाचना, स्वाध्याय करने में लोभी वणिक् की भांति बड़ी तन्मयता से जुट जाते हैं । आगमों के प्रति आप पूर्ण श्रद्धावान हैं। अतिरुचिपूर्वक आगमों का अध्ययन करने-करवाने में आप सदैव संलग्न हैं। इन्हीं कारणों से साधु-साध्वी वर्ग आपको 'जैनागम तत्त्व (शास्त्र) विशारद' की उपमा से उपमित करते हुए अपने आप में गौरव का अनुभव करते हैं। विहार और प्रचार से पावन क्षेत्र
बहता पानी निर्मला, पड़ा गंदिला होय ।
साधु तो रमता भला, दोष न लागे कोय । मंद-मंद गतिमान जल प्रवाह निर्मल होता है। प्रवहमान पवन उपयोगी माना है, कलित-ललित झरने मानव-मन को आकृष्ट करते हैं एवं गतिमान नदी-नाले मानव और पशु-पक्षियों के कलरवों से सदैव सुहावने प्रतीत होते हैं। उसी प्रकार सूर्य-शशि भी चलते-फिरते शोभा पाते हैं। अर्थात्-विश्व के अंचल में उदयमान तत्त्व जितने भी विद्यमान हैं, वे सभी परोपकार के विराट् क्षेत्र में तैनात हैं। श्रमण जीवन-ज्योति भी अप्रवाहित नीर के सदृश एक ही स्थान पर स्थिर रहने से दूषित हो जाती है। अतः जैनागमों में साधुओं को सतत विहार के लिए कहा गया है। साधु किसी भी गाँव या नगर का नहीं होता है । अपितु-'वसुधैव कुटुम्बकम्' अर्थात् समष्टि ही उसका कुटुम्ब है। इस कारण वह एक स्थान पर मठ या आश्रम बनाकर नहीं रहते हैं। चिरकाल से जैन साधु एक स्थान से दूसरे स्थान पर पाद-यात्रा करते आ रहे हैं। दीर्घ उत्ताल तरंग पर्वत मालाएँ, संतप्त बालकामय मरु-प्रदेश, कंटकाकीर्ण मेवाड भमि, विजन पथ. ऊँचे-नीचे गिरि-गह्वर उनके पाद-विहार यात्रा को नहीं रोक सके। जन-हित तथा आत्म-कल्याण की भावना ने उनको विश्व के सुदूर कोने-कोने तक पहुँचाया। उनका यह अभियान स्वर्ण-खानों की खोज के लिए अथवा तैल-कूपों की शोध के लिए या कहीं उपनिवेश स्थापित करने के लिए नहीं हुआ। बल्कि हुआ है अशांत विश्व को शान्ति का संदेश सुनाने के लिए, विश्व को भ्रातृत्व के एक सूत्र में बाँधने के लिए और अज्ञानान्धकार में भटकती जनता को सत्पथ प्रदर्शित करने के लिए। आज भी वही क्रम चालू है । आधुनिक यातायात के ढेरों साधन उपलब्ध होने पर भी जैन साधु पाद-विहार करते हुए देश के कोनेकोने में पहुँच जाते हैं। विश्व को श्रमण जीवन की यह बहुत बड़ी देन है।
भावी आचार्यप्रवर श्री खूबचन्दजी महाराज की सेवा-सुश्रूषा में रहकर आपने काफी चातुर्मास पूरे किए । योग्य विनीत-वैयावृत्य कुशल शिष्य की गुरु को सदैव
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