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१/ संस्मरण : आदराञ्जलि : ४३ बचपन की कुछ यादें • सौ० आभा भारती, दमोह ( सुपुत्री स्व. पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य )
क्या भूलू क्या याद करूँ, क्या लिखू क्या ना लिखू, का यहां सवाल ही नहीं। याद ही है चन्द बातें, चन्द घटनाएँ,
और कुछ लम्हों का लड़कपन ।
मैं मात्र पांच वर्ष की थी जब मेरे पिताजी नहीं रहे थे। पिताजीको हम सब दादा कहते थे । दो वर्ष की थी तभी मां स्वर्ग सिधार गयी थीं। मानस पटलपर आती है एक तस्वीर हर रात दादाके सीनेसे बन्दर समान चिपक कर सोनेकी । चौकीदारकी आवाज 'जागते रहो' सुनकर और सट जाने को। बड़ी भयावह आवाज लगती थी वह ।।
एक दूसरी तस्वीर उभरती है दादासे एक पल की असहनीय जुदाईसे सम्बन्धित । अलगावके भयसे लम्बा-लम्बा स्कूलसे गोल मारना। भाई-बहनोंके उलाहनेपर, कि अब तुम्हारा नाम स्कूलसे कटने वाला है, स्कूल जाना और आधी छटीमें भाग आना । घरपर दादाको न पाकर रोना-चिल्लाना। मिलनेपर पनः गोदमें सवार हो जाना । हाँ, एक बात और याद आती है, स्कूल जाते समय हम सबको इकन्नी ( एक आना) मिला करती थी, उसके बावजूद नहीं जाना तो नहीं जाना। इसी कारण पहलीमें एक साल फेल हो गयी मैं । एक बार अपनी एकन्नी महमें दबाए मस्त सोफे पर लेती थी मैं । एकन्नी गले में फंसते हए पेटमें सरक गयी । घरमें बेचारी बढ़ी दादी! अकेली क्या करती । कालेजसे पिताजी घर आये और साईकिल पर बैठा डाक्टरके पास ले गये। पहली बार एक्सरे-कक्ष देखा और मेरा एक्सरे हुआ । सलाह दी गयी चिकने पदार्थ हलुआ, केला आदि खिलाने की। रोज सुबहसे हलुआ मिलने लगा। मैं सबसे कहती तुम भी एकन्नी गुटक जाओ हलुआ खानेको मिलेगा। यह सुनकर भाई-बहन चिढ़ाते, पर दादा हंस देते थे।
एक अन्य तस्वोर मां के अभाव में पिता ही हम चारों भाई-बहनोंको भोरसे नहला-धुला तैयार कर देते थे । स्कूल जानेके वक्त मैं हमेशाकी तरह रोते-चिल्लाते न जानेकी जिद्दपर अड़ी थी। इतने में पहली और अन्तिम बार तड़ाकसे सैन्डिल पहनाते-पहनाते एक चांटा गाल पर दादाने जड़ दिया। मेजपर बैठे-बैठे ही मेरे कपड़े गीले हो गये। पिताजी असोम दुःखमें डब गये । मैं ना जाने कब तक रोती रही, याद ही नहीं।
फिर आये वे दिन, जिनकी भयानकता पता नहीं थी तब । पर आज तक प्रभावित करती रही। काल मँडरा रहा था आस-पास । पिताका बाँया सम्पूर्ण अंग लकवा ग्रस्त हो गया था। न बोल सकते थे, न चल फिर और न ही हिल-डुल सकते थे। बिस्तरपर लेटे, नाकमें नली लगी थी। मैं पांच साल की थी तब । आँगनमें खेलने में मस्त । पिताने इशारेसे पास बुलवाया। दाँया हाथ सिरपर फेरा। उनके गालों पर आंसू की कुछ बूंदे ढुलक पड़ी । यही है वह जीवित अंतिम दृश्य मेरी तिजोरी में । पूंजी बन बैठा है । सिरपर उनका वह दांया हाथ आज तक बना है।
फिर याद आता है दो-चार दिन बाद हा-हाकार करती बेहिसाब भीड़ । काशी हिन्दू विश्वविद्यालयका विशाल घर छोटा पड़ गया था। सामने डाक्टर राजबली पाण्डे रहते थे। जो बादमें जबलपुर विश्वविद्यालयके कुलपति हुए। उन्होंने ही सब बच्चोंको अपने घर बुलवा लिया था। अर्थीका दृश्य भी हमें नहीं
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