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४ / विशिष्ट निबन्ध : ३४९ तात्पर्य यह कि - विश्व में जितने सत् हैं उनमें से न तो एक कम हो सकता है और न एक बढ़ सकता है । अनन्त जड़ परमाणु अनन्त आत्माएँ, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मंद्रव्य, एक आकाश और असंख्य काला इतने सत् हैं । इनमें धर्म, अधर्म, आकाश और काल अपने स्वाभाविक रूपमें सदा विद्यमान रहते हैं उनका विलक्षण परिणमन नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं कि ये कूटस्थ नित्य है किन्तु इनका प्रतिक्षण जो परिणमन होता है, वह सदृश स्वाभाविक परिणमन ही होता है। आत्मा और पुद्गल ये दो द्रव्य एक दूसरेको प्रभावित करते हैं। जिस समय आत्मा शुद्ध हो जाता है उस समय यह भी अपने प्रतिक्षणभावी स्वाभाविक परिणमनका ही स्वामी रहता है, उसमें विलक्षण परिणति नहीं होती। जबतक आत्मा अशुद्ध है तबतक ही इसके परिणमनपर सजातीय जीवान्तरका और विजातीय मुद्गलका प्रभाव आनेसे विलक्षणता आती है । इसकी नानारूपता प्रत्येकको स्वानुभवसिद्ध है । जड़ पुद्गल ही एक ऐसा विलक्षण द्रव्य है जो सदा सजातीयसे भी प्रभावित होता है और विजातीय चेतनसे भी इसी पुद्गल द्रव्यके चमत्कार आज विज्ञानके द्वारा हम सबके सामने प्रस्तुत है । इसीके हीनाधिक संयोग-वियोगोंके फलस्वरूप असंख्य आविष्कार हो रहे हैं। विद्युत् शब्द आदि इसीके रूपान्तर हैं, इसीको शक्तियाँ हैं। जीवकी अशुद्ध दशा इसीके संपर्कसे होती है। अनादिसे जीव और पुद्गलका ऐसा संयोग है जो पर्यायान्तर लेनेपर भी जीव इसके संयोगसे मुक्त नहीं हो पाता और उसमें विभावपरिणमन राग, द्वेष, मोह अज्ञानरूप दशाएँ होती रहती हैं। जब यह जीव अपनी चारित्रसाधना द्वारा इतना समर्थ और स्वरूपप्रतिष्ठ हो जाता है कि उसपर बाह्य जगत्का कोई भी प्रभाव न पड़ सके तो वह मुक्त हो जाता है और अपने अनन्त चैतन्यमें स्थिर हो जाता है। मुक्त जीव अपने प्रतिक्षण परिवर्तित स्वाभाविक चैतन्य में लीन रहता है । फिर उसमें अशुद्ध दशा नहीं होती । अन्ततः पुद्गल परमाणु ही ऐसे हैं जिनमें शुद्ध या अशुद्ध किसी भी दशा में दूसरे संयोगके आधारसे नाना आकृतियाँ और अनेक परिणमन संभव हैं तथा होते रहते हैं । इस जगत् व्यवस्थामें किसी एक ईश्वर जैसे नियन्ताका कोई स्थान नहीं है । यह तो अपने-अपने संयोग-वियोगोंसे परिणमनशील है। प्रत्येक पदार्थका अपना सहज स्वभावजन्य प्रतिक्षणभावी परिणमनचक्र चालू है । यदि कोई दूसरा संयोग आ पड़ा और उस द्रव्यने इसके प्रभावको आत्मसात् किया तो परिणमन तत्प्रभावित हो जायगा, अन्यथा वह अपनी गतिसे बदलता चला जायगा। हाइड्रोजनका एक अणु अपनी गति से प्रतिक्षण हाइड्रोजन रूपमें बदल रहा है। यदि ऑक्सीजनका अणु उसमें आ जुटा तो दोनोंका जलरूप परिणमन हो जायगा । वे दोनों एक जलबिन्दु रूपसे सदृश संयुक्त परिणमन कर लेंगे । यदि किसी वैज्ञानिक विश्लेषणप्रयोगका निमित्त मिला तो वे दोनों फिर जुदा-जुदा भी हो सकते हैं। यदि अग्निका संयोग मिल गया तो भाप बन जायँगे । यदि साँपके मुखका संयोग मिला तो विषबिन्दु हो जायँगे । तात्पर्य यह कि यह विश्व साधारणतया पुद्गल और अशुद्ध जीवके निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धका वास्तविक उद्यान है । परिणमन चक्रपर प्रत्येक द्रव्य चढ़ा हुआ है । वह अपनी अनन्त योग्यताओं के अनुसार अनन्त परिणमनोंको क्रमशः धारण करता है। समस्त 'सत्' के समुदायका नाम लोक या विश्व है। इस दृष्टिसे अब आप लोकके शाश्वत और अशास्वत वाले प्रश्नको विचारिए -
१-क्या लोक शाश्वत है? हाँ, लोक शाश्वत है। द्रव्योंकी संख्या की दृष्टिसे अर्थात् जितने सत् इसमें हैं उनमेंका एक भी सत् कम नहीं हो सकता और न उसमें किसी नये सत्की वृद्धि ही हो सकती है । न एक सत् दूसरे में विलीन ही हो सकता है । कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जो इसके अंगभूत द्रव्योंका लोप हो या वे समाप्त हो जायें ।
२- क्या लोक अशाश्वत है ? हाँ, लोक अशाश्वत है, अंगभूत द्रव्योंके प्रतिक्षण भावी परिणमनोंकी दृष्टिसे ? अर्थात् जितने सत् है वे प्रतिक्षण सदृश या विसदृश परिणमन करते रहते हैं। इसमें दो क्षणतक
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