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३४८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
बुद्ध और संजय ही क्या, उस समयके वातावरणमें आत्मा, लोक-परलोक और मक्तिके स्वरूपके संबंध में-है ( सत् ), नहीं ( असत् ), है-नहीं ( सत्असत् उभय ), न है, न नहीं है ( अव्यक्त या अनुभय ) ये चार कोटियां गूंज रही थीं। कोई भी प्राश्निक किसी भी तीर्थ कर या आचार्यसे बिना किसी संकोचके अपने प्रश्नको एक साँसमें ही उक्त चार कोटियोंमें विभाजित करके ही पूछता था। जिस प्रकार आज कोई भी प्रश्न मजदुर और पूंजीपति, शोषक और शोष्यके द्वन्द्वको छायामें ही सामने आता है, उसी प्रकार उस समय आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थोके प्रश्न सत्, असत्, उभय और अनुभय-अनिर्वचनीय इस चतुष्कोटिमें आवेष्टित रहते थे। उपनिषद् और ऋग्वेदमें इस चतुष्कोटिके दर्शन होते हैं। विश्वके स्वरूपके सम्बन्धमें सत्से असत् हुआ ? या सत्से सत् हुआ ? विश्व सत् रूप है ? या असत् रूप है, या सदसत् उभयरूप है या सदसत् दोनों रूपसे अनिर्वचनीय है ? इत्यादि प्रश्न उपनिषद् और वेदमें बराबर उपलब्ध होते हैं ? ऐसी दशामें राहुलजीका स्याद्वादके विषयमें यह फतवा दे देना कि संजयके प्रश्नोंके शब्दोंसे या उसकी चतुर्भगीको तोड़-मरोड़कर सप्तभंगी बनी-कहाँतक उचित है, यह वे स्वयं विचारें ।
बुद्धके समकालीन जो छह तीथिक थे उनमें निग्गण्ठनाथपुत्त महावीरकी अपने क्षेत्रमें सर्वज्ञ और सर्वदर्शीके रूपमें प्रसिद्धि थी। वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे या नहीं, यह इस समयकी चरचाका विषय नहीं है, पर वे विशिष्ट तत्त्वविचारक थे और किसी भी प्रश्नको संजयकी तरह अनिश्चयकोटि या विक्षेपकोटिमें और बुद्धकी तरह अव्याकृत कोटिमें डालनेवाले नहीं थे और न शिष्योंकी सहज जिज्ञासाको अनुपयोगिताके भयप्रद चक्करमें डुबा देना चाहते थे । उनका विश्वास था कि संघके पँचमेल व्यक्ति जबतक वस्तुतत्त्वका ठीक निर्णय नहीं कर लेते तबतक उनमें बौद्धिक दृढ़ता और मानसबल नहीं आ सकता। वे सदा अपने समानशील अन्य संघके भिक्षओंके सामने अपनी बौद्धिक दीनताके कारण हतप्रभ रहेंगे और इसका असर उनके जीवन और आचारपर आये बिना नहीं रहेगा। वे अपने शिष्योंको पर्देबन्द पद्मिनियोंकी तरह जगतके स्वरूपविचारकी बाह्य हवासे अपरिचित नहीं रखना चाहते थे, किन्तु चाहते थे कि प्रत्येक मानव अपनी सहन जिज्ञासा और मननशक्तिको वस्तुके यथार्थ स्वरूपके विचारकी ओर लगावे । न उन्हें बुद्धकी तरह यह भय व्याप्त था कि यदि आत्माके सम्बन्धमें 'है' कहते हैं तो शाश्वतवाद अर्थात् उपनिषद्वादियोंकी तरह लोग नित्यत्वकी ओर झुक जायेंगे और 'नहीं है' कहनेसे उच्छेदवाद अर्थात् चार्वाककी तरह नास्तिकत्वका प्रसंग प्राप्त होगा, अतः इस प्रश्नको अव्याकृत रखना ही श्रेष्ठ है। वे चाहते थे कि मौजूद तर्कोका और संशयोंका समाधान वस्तुस्थितिके आधारसे होना ही चाहिये। अतः उन्होंने वस्तुस्वरूपका अनुभवकर यह बताया कि जगतका प्रत्येक सत्, चाहे वह चेतनजातीय हो या अचेतनजातीय, परिवर्तनशील है। वह निसर्गतः प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है। उसकी पर्याय बदलती रहती है । उसका परिणमन कभी सदश भी होता है, कभी विसदृश भी। पर परिणमनसामान्यके प्रभावसे कोई भी अछूता नहीं रहता । यह एक मौलिक नियम है कि किसी भी सत्का सर्वथा उच्छेद नहीं हो सकता, वह परिवर्तित होकर भी अपनी मौलिकता या सत्ताको नहीं खो सकता । एक परमाणु है वह हाइड्रोजन बन जाय, जल बन जाय, भाप बन जाय, फिर पानी हो जाय, पथिधी बन जाय और अनन्त आकृतियों या पर्यायोंको धारण कर ले, पर अपने द्रव्यत्व और मौलिकत्वको नहीं खो सकता । किसीकी ताकत नहीं जो उस परमाणुकी हस्तीको मिटा सके । तात्पर्य यह कि जगत्में जितने 'सत्' है उतने बने रहेंगे, उनमेंसे एक भी कम नहीं हो सकता, एक दूसरेमें विलीन नहीं हो सकता। इसी तरह न कोई नया 'सत्' उत्पन्न हो सकता है। जितने हैं उनका ही आपसी संयोगोंके आधारसे यह विश्व जगत् ( गच्छतीति जगत् अर्थात् नाना रूपोंको प्राप्त होनेवाला) बनता रहता है।
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