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भ्रान्तिनिराकरण
क्या स्याद्वाद अनिश्चयवाद है ?
[ महापंडित राहुल सांकृत्यायन लिखित 'दर्शन-दिग्दर्शन' की एक समीक्षा ]
जैनदर्शनने सामान्यरूपसे यावत् सत्को परिणामी नित्य माना है । प्रत्येक सत् अनन्तधर्मात्मक है । उसका पूर्णरूप वचनोंके अगोचर है । अनेकान्तात्मक अर्थका निर्दोष रूपसे कथन करनेवाली भाषा स्याद्वाद रूप होती है । उसमें जिस धर्मका निरूपण होता है उसके साथ 'स्यात्' शब्द इसलिए लगा दिया जाता है जिससे पूरी वस्तु धर्मरूप न समझ ली जाय । अविवक्षित शेष धर्मोका अस्तित्व भी उसमें है यह प्रतिपादन 'स्यात्' शब्दसे होता है ।
स्याद्वादका अर्थ है— स्यात् - अमुक निश्चित अपेक्षासे । अमुक निश्चित अपेक्षासे घट अस्ति ही है और अमुक निश्चित अपेक्षासे घट नास्ति ही है । स्यात्का अर्थ न शायद है, न सम्भवतः और न कदाचित् ही । ' स्यात्' शब्द सुनिश्चित दृष्टिकोणका प्रतीक है । इस शब्दके अर्थको पुराने मतवादी दार्शनिकोंने ईमानदारीसे समझने का प्रयास तो नहीं ही किया था, किन्तु आज भी वैज्ञानिक दृष्टिकी दुहाई देनेवाले दर्शन - लेखक उसी भ्रान्त परम्पराका पोषण करते आते हैं ।
स्याद्वाद -- सुनयका निरूपण करनेवाली भाषापद्धति है । 'स्यात्' शब्द यह निश्चितरूपसे बताता है कि वस्तु केवल धर्मवाली ही नहीं है उसमें इसके अतिरिक्त भी धर्म विद्यमान हैं । तात्पर्य यह कि -अविविक्षित शेष धर्मोका प्रतिनिधित्व 'स्यात्' शब्द करता है । 'रूपवान् घटः' यह वाक्य भी अपने भीतर 'स्यात् ' शब्दको छिपाए हुए है । इसका अर्थ है कि 'स्यात् रूपवान् घटः' अर्थात् चक्षु इन्द्रियके द्वारा ग्राह्य होने से या रूप गुणकी सत्ता होनेसे घड़ा रूपवान् है, पर रूपवान् ही नहीं है उसमें रस, गन्ध, स्पर्श आदि अनेक गुण, छोटा, बड़ा आदि अनेक धर्म विद्यमान हैं । इन अविवक्षित गुणधर्मो के अस्तित्वकी रक्षा करनेवाला 'स्यात् ' शब्द है । 'स्यात्' का अर्थ शायद या सम्भावना नहीं है किन्तु निश्चय है । अर्थात् घड़े में रूपके अस्तित्वकी सूचना तो रूपवान् शब्द दे ही रहा है । पर उन उपेक्षित शेष धर्मोके अस्तित्वकी सूचना 'स्यात्' शब्दसे होती है । सारांश यह कि 'स्यात्' शब्द 'रूपवान् के साथ नहीं जुटता है, किन्तु अविवक्षित धर्मोंके साथ । वह 'रूपवान्' को पूरी वस्तु पर अधिकार जमानेसे रोकता है और कह देता है कि वस्तु बहुत बड़ी है उसमें रूप भी एक है । ऐसे अनन्त गुणधर्म वस्तु में लहरा रहे हैं । अभी रूपकी विवक्षा या उसपर दृष्टि होने से वह सामने है या शब्दसे उच्चरित हो रहा है सो वह मुख्य हो सकता है पर वही सबकुछ नहीं है । दूसरे क्षण में रसकी मुख्यता होनेपर रूप गौण हो जायगा और वह अविवक्षित शेष धर्मोकी राशिमें शामिल हो जायगा ।
वह उन अविवक्षित घड़े में रूपकी भी इसी तरह 'स्या
'स्यात् ' शब्द एक प्रहरी है, जो उच्चरित धर्मको इधर-उधर नहीं जाने देता । धर्मोका संरक्षक है । इसलिए 'रूपवान्' के साथ 'स्यात्' शब्दका अन्वय करके जो लोग स्थितिको स्यात्का शायद या सम्भावना अर्थ करके सन्दिग्ध बनाना चाहते हैं वे भ्रममें हैं । दस्ति घटः' वाक्य में 'घटः अस्ति' यह अस्तित्व अंश घटमें सुनिश्चितरूप से विद्यमान है । स्यात् शब्द अस्तित्वकी स्थिति कमजोर नहीं बनाता किन्तु उसकी वास्तविक आंशिक स्थितिकी सूचना देकर अन्य नास्ति आदि धर्मो सद्भावको सूचित करता है । सारांश यह कि 'स्यात्' पद एक स्वतन्त्र पद है जो वस्तुके शेषांश
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