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४/ विशिष्ट निबन्ध : ३४३
मानव नहीं रह सकता। उन्होंने अपने 'समन्वय' और 'दर्शनका प्रयोजन' आदि ग्रन्थोंमें इसी समन्वयतत्त्वका भरि-भरि प्रतिपादन किया है। जैन ऋषियोंने इस समन्वय (स्याद्वाद) सिद्धान्त पर ही संख्याबद्ध ग्रन्थ लिखे है। इनका विश्वास है कि जबतक दृष्टि में समीचीनता नहीं आयगी तबतक झगड़े और संघर्ष बने रहेंगे। नये दृष्टिकोणसे वस्तुस्थितितक पहुँचना ही जीवको विसंवादसे हटाकर उसे संवादी बना सकता है । यही जैनदर्शनकी भारतीय संस्कृतिको देन है । आज हमें जो स्वातन्त्र्यके दर्शन हुए वह इसी अहिंसाका पुण्य फल है, और विश्वमें भारतका मस्तक यदि कोई ऊँचा रख सकता है तो यह निरूपाधि अहिंसा भावना ही।
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