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________________ । ४ / विशिष्ट निबन्ध : २५९ वियोग न हो, वे सदा बने रहें, इस तरह उनसे संयोगके लिए चित्तकी अभिनन्दिनी वृत्तिको तृष्णा कहते हैं । यही तृष्णा समस्त दुःखोंका कारण है । निरोध- सत्य - तृष्णाके अत्यन्त निरोध या विनाशको निरोधआर्यसत्य कहते हैं । दुःख निरोधका मार्ग है- आष्टांगिक मार्ग । सम्यग्दृष्टि, सम्यकूसंकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक्कर्म, सम्यक् आजीवन, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि नैरात्म्य भावना ही मुख्यरूपसे मार्ग हैं । बुद्धने आत्मदृष्टि या सत्त्वदृष्टिको हो मिथ्यादर्शन कहा है। उनका कहना है कि एक आत्माको शाश्वत या स्थायी समझकर ही व्यक्ति स्नेहवश उसके सुखमें तृष्णा करता है । तृष्णा के कारण उसे दोष नहीं दिखाई देते और गुणदर्शन कर पुनः तृष्णावश सुखसाधनोंमें ममत्व करता है । उन्हें ग्रहण करता है । तात्पर्य यह कि जब तक 'आत्माभिनिवेश' है तब तक वह संसारमें रुलता है। इस एक आत्माके मानने से वह अपनेको स्व और अन्यको पर समझता है । स्व-परविभागसे राग और द्वेष होते हैं, और ये राग-द्वेष ही समस्त संसार परम्पराके मूल स्रोत हैं । अतः इस सर्वानर्थमूल आत्मदृष्टिका नाश कर नैरात्म्य - भावनासे दुःख निरोध होता है । बुद्धका दृष्टिकोण उपनिषद्का तत्त्वज्ञान जहाँ आत्मदर्शनपर जोर देता है और आत्मदर्शनको ही मोक्षका परम साधन मानता है और मुमुक्षके लिए आत्मज्ञानको ही जीवनका सर्वोच्च साध्य समझता है, वहाँ बुद्धने इस आत्मदर्शनको ही संसारका मूल कारण माना है । आत्मदृष्टि, सत्त्वदृष्टि, सत्कायदृष्टि, ये सब मिथ्यादृष्टियाँ हैं । औपनिषद तत्त्वज्ञानकी ओटमें, याज्ञिक क्रियाकाण्डको जो प्रश्रय मिल रहा था उसीकी यह प्रतिक्रिया थी fa बुद्धको 'आत्मा' शब्दसे ही घृणा हो गई थी । आत्माको स्थिर मानकर उसे स्वर्गप्राप्ति आदिके प्रलोभन से अनेक क्रूर यज्ञों में होनेवाली हिंसाके लिए उकसाया जाता था । इस शाश्वत आत्मवादसे ही राग और द्वेषकी अमरबेलें फैलती हैं । मजा तो यह है कि बुद्ध और उपनिषद्वादी दोनों ही राग, द्वेष और मोहका अभाव कर वीतरागता और वासनानिर्मुक्तिको अपना चरम लक्ष्य मानते थे, पर साधन दोनोंके इतने जुदे थे कि एक जिस आत्मदर्शनको मोक्षका कारण मानता था, दूसरा उसे संसारका मूलबीज । इसका एक कारण और भी था कि बुद्धका मानस दार्शनिककी अपेक्षा सन्त ही अधिक था। वे ऐसे गोलगोल शब्दोंको बिलकुल हटा देना चाहते थे, जिनका निर्णय न हो सके या जिनकी ओटमें मिथ्या धारणाओं और अन्धविश्वासों की सृष्टि होती हो । 'आत्मा' शब्द उन्हें ऐसा ही लगा । बुद्ध की नैरात्म्य - भावनाका उद्देश्य 'बोधिचर्यावतार' ( पृ० ४४९ ) में इस प्रकार बताया है 'यतस्ततो वाऽस्तु भयं यद्यहं नाम किंचन । अहमेव न किञ्चिचेत् कस्य भोतिर्भविष्यति ।" १. " यः पश्यत्यामानं तत्रास्याहमिति शाश्वतः स्नेहः । स्नेहात् सुखेषु तृष्यति तृष्णा दोषांस्तिरस्कुरुते ॥ गुणदर्शी परितृष्यन् ममेति तत्साधनान्युपादत्ते । तेनात्माभिनिवेशो यावत् तावत्स संसारे ॥ आत्मनि सति परसंज्ञा स्वपर विभागात् परिग्रहद्वेषो । अनयो. सम्प्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः प्रजायन्ते ।। " " तस्मादनादिसन्तानतुल्यजातीयबी जिकाम् । उत्खातमूलां कुरुत सत्त्वदृष्टि मुमुक्षवः ॥" २. Jain Education International -प्र० वा० १।२१९-२१ -प्रमाणवा० ११२५८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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