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२५६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति-ग्रन्थ
हित और नवसमाजरचना के लिए स्वयं समाप्त होना ही चाहिए और समान अवसरवाली परम्पराका सर्वाम्युदयकी दृष्टिसे विकास होना चाहिए ।
इस तरह अनेकान्तदृष्टिसे विचारसहिष्णुता और परसन्मानकी वृत्ति जग जानेपर मन दूसरेके स्वार्थ को अपना स्वार्थ मानने की ओर प्रवृत्त होकर समझौतेकी ओर मदा झुकने लगता । जब उसके स्वाधिकार के साथ-ही-साथ स्वकर्त्तव्यका भी भाव उदित होता है; तब वह दूसरेके आन्तरिक मामलों में जबरदस्ती टाँग नहीं अड़ाता । इस तरह विश्वशान्तिके लिए अपेक्षित विचारसहिष्णुता, समानाधिकारकी स्वीकृति और आन्तरिक मामलों में अहस्तक्षेप आदि सभी आधार एक व्यक्तिस्वातन्त्र्य के मान लेनेसे ही प्रस्तुत हो जाते हैं । और जब तक इन सर्वसमतामूलक अहिंसक आधारोंपर समाजरचनाका प्रयत्न न होगा, तब तक विश्वशान्ति स्थापित नहीं हो सकती। आज मानवका दृष्टिकोण इतना विस्तृत, उदार और व्यापक गया है जो वह विश्वशान्तिकी बात सोचने लगा है । जिस दिन व्यक्तिस्वातन्त्र्य और समानाधिकारकी बिना किसी विशेषसंरक्षणके सर्वसामान्यप्रतिष्ठा होगी, वह दिन मानवताके मंगलप्रभातका पुण्यक्षण होगा | जैनदर्शनने इन आधारोंको सैद्धान्तिक रूप देकर मानवकल्याण और जीवनकी मंगलमय निर्वाहपद्धति के विकास में अपना पूरा भाग अर्पित किया है । और कभी भी स्थायी विश्वशान्ति यदि संभव होगी, तो इन्हीं मूल आधारोंपर ही वह प्रतिष्ठित हो सकती है ।
भारत राष्ट्रके प्राण पं० जवाहरलाल नेहरूने विश्वशान्तिके लिए जिन पंचशील या पंचशिलाओं का उद्घोष किया था और बाडुङ्ग सम्मेलनमें जिन्हें सर्वमतिसे स्वीकृति मिली, उन पंचशीलोंकी बुनियाद अनेकान्तदृष्टि - समझौते की वृत्ति, सहअस्तित्वको भावना, समन्वयके प्रति निष्ठा और वर्ण, जाति, रंग आदिके भेदोंसे ऊपर उठकर मानवमात्र के सम अभ्युदयकी कामनापर ही तो रखी गई है । और इन सबके पीछे है। मानवका सम्मान और अहिंसामूलक आत्मौपम्यकी हार्दिक श्रद्धा । आज नवोदित भारतकी इस सर्वोदयी परराष्ट्रनीतिने विश्वको हिंसा, संघर्ष और युद्धके दावानलसे मोड़कर सहअस्तित्व, भाईचारा और समझौते की सद्भावनारूप अहिंसाकी शीतल छायामें लाकर खड़ा कर दिया है। वह सोचने लगा है कि प्रत्येक राष्ट्र को अपनी जगह जीवित रहनेका अधिकार है, उसका आस्तित्व है, परके शोषणका उसे गुलाम बनानेका कोई अधिकार नहीं है, परमें उसका अस्तित्व नहीं है । यह परके मामलोंमें अहस्तक्षेप और स्वास्तित्वकी स्वीकृति ही विश्वशान्तिका मूलमन्त्र है । यह सिद्ध हो सकती है— अहिंसा, अनेकान्तदृष्टि और जीवन में भौतिक साधनों की अपेक्षा मानव के सम्मानके प्रति निष्ठा होनेसे । भारत राष्ट्रने तीर्थंकर महावीर और बोधिसत्त्व गौतमबुद्ध आदि सन्तोंकी अहिंसाको अपने संविधान और परराष्ट्रनीतिका आधार बनाकर विश्वको एक बार फिर भारतकी आध्यात्मिकताकी झाँकी दिखा दी है । आज उन तीर्थं ङ्करोंकी साधना और तपस्या सफल हुई है कि समस्त विश्व सह-अस्तित्व और समझौतेकी वृत्तिकी ओर झुककर अहिंसकभावनासे मानवताकी रक्षाके लिए सन्नद्ध हो गया है ।
व्यक्तिकी मुक्ति, सर्वोदयी समाजका निर्माण और यही निधियाँ भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक कोषागार में करके संजोई है | आज वह धन्य हो गया कि उसकी उस ज्योतिसे विश्वका हिसान्धकार समाप्त होता जा रहा है और सब सबके उदयमें अपना उदय मानने लगे हैं ।
विश्वकी शान्तिके लिए जैनदर्शनके पुरस्कर्ताओं ने आत्मोत्सर्ग और निर्ग्रन्थनाकी तिल-तिल साधना अहिंसा, अनेकान्तदृष्टि और अपरिग्रहभावनाकी
राष्ट्रपिता पूज्य बापूकी आत्मा इस अंशमें सन्तोषकी साँस ले रही होगी कि उनने अहिंसा संजीवन
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