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१७२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
३-सिद्धसेनदिवाकरके न्यायावतारपर सिद्धर्षिगणिकी एक वृत्ति उपलब्ध है। हम 'सिद्धर्षि और प्रभाचन्द्र' की तुलनामें बता आए हैं कि प्रभाचन्द्रने न्यायावतारके साथही साथ इस वृत्तिको भी देखा है । सिद्धर्षिने ई० ९०६ में अपनी उपमितिभवप्रपञ्चाकथा बनाई थी। अतः न्यायावतारवृत्तिके द्रष्टा प्रभाचन्द्रका समय सन् ९१० के पहिले नहीं माना जा सकता।
४-भासर्वज्ञका न्यायसार ग्रंथ उपलब्ध है। कहा जाता है कि इसपर भासर्वज्ञकी स्वपोज्ञ न्यायभूषणा नामकी वृत्ति थी । इस वृत्तिके नामसे उत्तरकालमें इनकी भी 'भूषण' रूपमें प्रसिद्धि हो गई थी। न्यायलीलावतीकारके कथनसे ज्ञात होता है कि भूषण क्रियाको संयोग रूप मानते थे। प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० २८२ ) में भासर्वज्ञके इस मतका खंडन किया है। प्रमेयकमलमार्तण्डके छठवें अध्यायमें जिन विशेष्यासिद्ध आदि हेत्वाभासोंका निरूपण है वे सब न्यायसारसे ही लिए गए है। स्व० डॉ० शतीशचन्द्र विद्याभूषण इनका समय ई० ९०० के लगभग मानते हैं । अतः प्रभाचन्द्र का समय भी ई० ९०० के बाद ही होना चाहिए।
५-आ० देवसेनने अपने दर्शनसार ग्रन्थ ( रचनासमय ९९० वि. ९३३ ई० ) के बाद भावसंग्रह ग्रन्थ बनाया है। इसकी रचना संभवतः सन् ९४० के आसपास हुई होगी। इसकी एक 'नोकम्मकम्महारो' गाथा प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकूमदचन्द्र में उद्धृत है। यदि यह गाथा स्वयं देवसेनकी है तो प्रभाचन्द्रका समय सन् ९४० के बाद होना चाहिए।
६-आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमल और न्यायकुमद० बनानेके बाद शब्दाम्भोजभास्कर नामका जैनेन्द्र. न्यास रचा था। यह न्यास जैनेन्द्रमहावृत्तिके बाद इसीके आधारसे बनाया गया है। मैं 'अभयनन्दि और प्रभाचन्द्र' की तुलना करते हुए लिख आया हूँ कि नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके गुरु अभयनन्दिने ही यदि महावत्ति बनाई है तो इसका रचनाकाल अनुमानतः ९६० ई० होना चाहिए। अतः प्रभाचन्द्रका समय ई० ९६० से पहिले नहीं माना जा सकता।
७-पुष्पदन्तकृत अपभ्रंशभाषाके महापुराणपर प्रभाचन्द्रने एक टिप्पण रचा है। इसकी प्रशस्ति रत्नकरण्डश्रावकाचारकी प्रस्तावना (पृ०६१ ) में दी गई है। यह टिप्पण जयसिंहदेवके राज्यकालमें लिखा गया है । पुष्पदन्तने अपना महापुराण सन् ९६५ ई० में समाप्त किया था । टिप्पणकी प्रशस्तिसे तो यही मालम होता है कि प्रसिद्ध प्रभाचन्द्र ही इस टिप्पणकर्ता है। यदि यही प्रभाचन्द्र इसके रचयिता है, तो कहना होगा कि प्रभाचन्द्रका समय ई. ९६५ के बाद ही होना चाहिए । यह टिप्पण इन्होंने न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना करके लिखा होगा। यदि यह टिप्पण प्रसिद्ध तर्कग्रन्थकार प्रभाचन्द्र का न माना जाय तब भी इसकी प्रशस्तिके श्लोक और पुष्पिकालेख, जिनमें प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके प्रशस्तिश्लोकोंका एवं पुष्पिकालेखका पूरा-पूरा अनुकरण किया गया है, प्रभाचन्द्रकी उत्तरावधि जयसिंहके राज्यकाल तक निश्चित करने में साधक तो हो ही सकते हैं।
-श्रोधर और प्रभाचन्द्रकी तुलना करते समय हम बता आए हैं कि प्रभाचन्द्र के ग्रन्थोंपर श्रीधरकी कन्दली भी अपनी आभा दे रही है। श्रीधरने कन्दली टीका ई० सन ९९१ में समाप्त की थी। अतः
१. देखो, न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० २८२, टि० ५। २. न्यायसार प्रस्तावना, पृ० ५। ३. देखो, महापुराणकी प्रस्तावना ।
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