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४/ विशिष्ट निबन्ध : १७१
ग्रन्थका पुनः सम्पादन करते समय जैनसिद्धान्तभवन, आराकी प्रतिके पाठान्तर लिए हैं। इसमें भी उक्त 'भोजदेवराज्ये' वाला वाक्य नहीं है। इसी तरह न्यायकुमुदचन्द्र के सम्पादनमें जिन आ०, ब०, श्र०, और भां० 'प्रतियोंका उपयोग किया है, उनमें आ० और ब० प्रतिमें 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' वाला प्रशस्ति लेख नहीं है। हाँ, भां० और श्र० प्रतियाँ, जो ताड़पत्रपर लिखी हैं, उनमें 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' वाला प्रशस्तिवाक्य है । इनमें भां० प्रति शालिवाहनशक १७६४ की लिखी हुई है । इस तरह प्रमेयकमलमार्तण्डकी किन्हीं प्रतियोंमें उक्त प्रशस्तिवाक्य नहीं है, किन्हीमें 'श्रीपद्मनन्दि' श्लोक नहीं है तथा कुछ प्रतियोंमें सभी श्लोक और प्रशस्ति वाक्य हैं। न्यायकुमुदचन्द्रकी कुछ प्रतियोंमें 'जयसिंहदेवराज्ये' प्रशस्तिवाक्य नहीं है । श्रीमान् मुख्तारसा० प्रायः इसीसे उक्त प्रशस्तिवाक्योंको प्रभाचन्द्रकृत नहीं मानते ।
___ इसके विषयमें मेरा यह वक्तव्य है कि-लेखक प्रमादवश प्रायः मौजूद पाठ तो छोड़ देते हैं पर किसी अन्यकी प्रशस्ति अन्यग्रन्थमें लगानेका प्रयत्न कम करते हैं। लेखक आखिर नकल करनेवाले लेखक हो तो हैं, उनमें इतनी बुद्धिमानीकी भी कम संभावना है कि वे 'श्री भोजदेवराज्ये' जैसी सुन्दर गद्य प्रशस्तिको स्वकपोलकल्पित करके उसमें जोड़ दें । जिन प्रतियोंमें उक्त प्रशस्ति नहीं है तो समझना चाहिए कि लेखकोंके प्रमादसे उनमें वह प्रशस्ति लिखी ही नहीं गई । जब अन्य अनेक प्रमाणोंसे प्रभाचन्द्रका समय करीब-करीब भोजदेव और जयसिंहके राज्यकाल तक पहुँचता है तब इन प्रशस्तिवाक्योंको टिप्पणकारकृत या किसी पीछे होनेवाले व्यक्तिकी करतूत कहकर नहीं टाला जा सकता । मेरा यह विश्वास है कि 'श्रीभोजदेवराज्ये' या श्री जयसिंहदेवराज्ये' प्रशस्तियाँ सर्वप्रथम प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके रचयिता प्रभाचन्द्रने ही बनाई हैं । और जिन-जिन ग्रन्थोंमें ये प्रशस्तियाँ पाई जाती हैं वे प्रसिद्ध तर्कग्रन्थकार प्रभाचन्द्र के ही ग्रन्थ होने चाहिए ।
२-यापनीयसंघानणी शाकटायनाचार्य ने शाकटायन व्याकरण और अमोघवत्तिके सिवाय केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरण लिखे हैं । शाकटायनने अमोघवृत्ति, महाराज अमोघवर्षके राज्यकाल (ई०८१४से ८७७ ) में रची थी। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें शाकटायनके इन दोनों प्रकरणोंका खंडन आनुपूर्वीसे किया है। न्यायकूमदचन्द्रमें स्त्रीमक्तिप्रकरणसे एक कारिका भी उद्धृत की है। अतः प्रभाचन्द्रका समय ई० ९००से पहिले नहीं माना जा सकता।
१. देखो, इनका परिचय न्यायकू० प्र० भागके सम्पादकीयमें । २. पं० नाथूरामजी प्रेमी अपनी नोटबुकके आधारसे सूचित करते हैं कि-"भाण्डारकर इन्स्टीट्यूटकी नं०
८३६ ( सन् १८७५-७६ ) की प्रतिमें प्रशस्तिका 'श्रीपद्मनन्दि' वाला श्लोक और 'भोजदेवराज्य, वाक्य नहीं । वहींकी नं०६३८ ( सन् १८७५-७६ ) वाली प्रतिमें 'श्री पद्मनन्दि' श्लोक है पर 'भोजदेवराज्ये' वाक्य नहीं है । पहिली प्रति संवत् १४८९ तथा दूसरी संवत् १७५५ की लिखी हुई है।" वीरवाणीविलास भवनके अध्यक्ष पं० लोकनाथ पार्श्वनाथशास्त्री अपने यहाँकी ताडपत्रकी दो पूर्ण प्रतियोंको देखकर लिखते हैं कि-"प्रतियोंकी अन्तिम प्रशस्तिमें मुद्रितपुस्तकानुसार प्रशस्ति श्लोक पूरे हैं और 'श्री भोजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना' आदि वाक्य है। प्रमेयकमलमार्तण्डकी प्रतियोंमें बहत शैथिल्य है, परन्तु करीब ६०० वर्ष पहिले लिखित होगी। उन दोनों प्रतियोंमें शकसंवत नहीं हैं।" सोलापुरकी प्रतिमें "श्रीभोजदेवराज्ये" प्रशस्ति नहीं है। दिल्लीको आधुनिक प्रतिमें भी उक्तवाक्य नहीं है। अनेक प्रतियोंमें प्रथम अध्यायके अन्तमें पाए जानेवाले “सिद्धं सर्वजनप्रबोध" श्लोककी व्याख्या नहीं है। इन्दौरकी तुकोगंजवाली प्रतिमें प्रशस्तिवाक्य है और उक्त श्लोककी व्याख्या भी है। खरईकी प्रतिमें 'भोजदेवराज्ये' प्रशस्ति नहीं है, पर चारों प्रशस्ति श्लोक है।
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