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________________ १२० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ करता। वह स्पष्ट घोषणा करता है कि चेतन और अचेतनमें सत्-सादृश्य रूपसे अनुगतव्यवहार हो सकता है, पर कोई ऐसा एक सत् नहीं जो दोनोंमें वास्तव अनुगत सत्ता रखता हो, सिवाय इसके कि दोनोंमें 'सत् सत्' ऐसा समान प्रत्यय होता है और 'सत् सत्' ऐसा शब्द-प्रयोग होता है। एक द्रव्यकी कालक्रमसे होनेवाली पर्यायोंमें जो अनुगतव्यवहार होता है वह परमार्थसत् एकद्रव्यमलक है। यद्यपि द्वितीयक्षणमें अविभक्तद्रव्य अखण्डका अखण्ड बदलता है-परिवर्तित होता है पर उस सत्का, जो कि परिवर्तित हुआ है अस्तित्व दुनियासे नष्ट नहीं किया जा सकता, उसे मिटाया नहीं जा सकता । जो वर्तमानक्षणमें अमुक दशामे है वही अखण्डका अखण्ड पूर्वक्षणमें अतीतदशामें था, वही बदलकर आगेके क्षणमें तीसरा रूप लेगा, पर अपने स्वरूपसत्त्वको नहीं छोड़ सकता, सर्वथा महाविनाशके गर्तमें प्रलीन नहीं हो सकता। इसका यह तात्पर्य बिलकुल नहीं है कि उसमें कोई शाश्वत कूटस्थ अंश है, किन्तु बदलनेपर भी उसका सन्तानप्रवाह चाल रहता है, कभी भी उच्छिन्न नहीं होता और न दूसरेमें विलीन होता है। अतः एक द्रव्यकी अपनी पर्यायोंमें होनेवाला अनुगत व्यवहार ऊध्र्वतासामान्य या द्रव्यमलक है । यह अपनेमें वस्तुसत् है। पूर्व पर्यायका अखण्ड निचोड़ उत्तरपर्याय है और उत्तरपर्याय अपने निचोड़भूत आगेकी पर्यायको जन्म देती है। इस तरह जैसे अतीत और वर्तमानका उपादानोपादेय सम्बन्ध है उसी तरह वर्तमान और भविष्यका भी। परन्तु सत्ता वर्तमान क्षणमात्रकी है। पर यह वर्तमान परम्परासे अनन्त अतीतोंका उत्तराधिकारी है और परम्परासे अनन्त भविष्यका उपादान भी बनेगा । इसी दृष्टिसे द्रव्यको कालत्रयवर्ती कहते हैं । शब्द इतने लचर होते हैं कि वस्तुके शतप्रतिशत स्वरूपको अभ्रान्त रूपसे उपस्थित करने में सर्वत्र समर्थ नहीं होते । यदि वर्तमानका अतीतसे बिलकुल सम्बन्ध न हो तभी निरन्वय क्षणिकत्वका प्रसङ्ग हो सकता है, परन्तु जब वर्तमान अतीतका ही परिवर्तित रूप है तब वह एक दृष्टिसे सान्वय ही हुआ। वह केवल पंक्ति और सेनाकी तरह व्यवहारार्थ किया जातेवाला संकेत नहीं है किन्तु कार्यकारणभूत और खासकर उपादानोपादेयमूलक तत्त्व है। वर्तमान जलबिन्दु एक ऑक्सिजन और एक हाइड्रोजनके परमाणुओंका परिवर्तनमात्र है, अर्थात् ऑक्सिजनको निमित्त पाकर हाइड्रोजन परमाणु और हाइड्रोजनको निमित्त पाकर ऑक्सिजन परमाण दोनोंने ही जल पर्याय प्राप्त कर ली है । इस द्विपरमाणुक जलबिन्दुके प्रत्येक जलाणका विश्लेषण कीजिए तो ज्ञात होगा कि जो एटम ऑक्सिजन अवस्थाको धारण किए था वह समचा बदलकर जल बन गया है। उसका और पूर्व ऑक्सिजनका यही सम्बन्ध है कि यह उसका परिणाम है। वह जिस समय जल नहीं बनता और ऑक्सिनका ऑक्सिजन ही रहता है उस समय भी प्रतिक्षण परिवर्तन सजातीय रूप होता ही रहता है। यही विश्वके समस्त चेतन और अचेतन द्रव्योंकी स्थिति है। इस तरह एक धाराकी पर्यायोंमें अनुगत व्यवहारका कारण सादृश्यसामान्य न होकर ऊर्ध्वतासामान्य ध्रौव्य सन्तान या द्रव्य होना है। इसी तरह विभिन्न द्रव्योंमें भेदका प्रयोजक व्यतिरेक विशेष होता है जो तव्यक्तित्व रूप है। एक द्रव्यकी दो पर्यायोंमें भेद व्यवहार कराने वाला पर्याय नामक विशेष है। जैनदर्शनने उन सभी कल्पनाओंके ग्राहक नय तो बताए हैं जो वस्तुसीमाको लाँधकर अधारतवादकी ओर जाती है । पर साथ ही स्पष्ट कह दिया है कि ये सब वक्ताके अभिप्राय है, उसके संकल्पके प्रकार हैं, वस्तुस्थितिके ग्राहक नहीं हैं । गुण और धर्म-वस्तुमें गुण भी होते है और धर्म भी। गुण स्वभावभूत हैं और इनकी प्रतीति परनिरपेक्ष होती है । धर्मोकी प्रतीति परसापेक्ष होती है और व्यवहारार्थ इनकी अभिव्यक्ति वस्तुकी योग्यताके अनुसार होती रहती है। धर्म अनन्त होते हैं। गुण गिने हुए है। यथा-जीवके असाधारण गुण-ज्ञान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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