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प्रस्तुत स्मृति ग्रन्थ की रूपरेखा और प्रकाशन क्रम स्थिर करते समय प्राच्य विद्या विशारदों के सम्मान की वह विशिष्ट परम्परा निरन्तर ध्यान में रही है जिसके अनुसार डॉ० आर०जी० भांडारकर, डॉ० एम० विण्टरनित्स, डॉ० दरबारीलाल कोठिया, डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य एवं पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य आदि का सम्मान उनके जीवन की आधारभूत प्रवृत्तियों और महत्त्वपूर्ण शोधपरक रचनाओं को ही एक साथ प्रकाशित कर समर्पित करके किया गया था । यह परम्परा वस्तुतः प्रशस्य, अनुकरणीय और अभिनन्दनीय है। अतएव इस स्मृति-ग्रन्थ में माननीय न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जी जैन के प्रति संस्मरण/आदराञ्जलि और उनके जीवन परिचय के साथ-साथ उनके कृतित्व को भी समीक्षा के निकष पर परखा गया है। साथ ही उनके द्वारा विविध विषयों पर लिखित कुछ महत्त्वपूर्ण निबन्धों, आलेखों एवं ग्रन्थों की प्रस्तावनाओं को भी समाविष्ट किया गया है । ऐसा करते समय सम्पादक मण्डल का यह प्रयत्न रहा है कि माननीय (स्व०) महेन्द्रकुमार जी के विचारों/मौलिक उभावनाओं और निष्पत्तियों से समाज. सामान्य पाठक. शोधार्थी और मनीषी सभी लाभान्वित हो सकें तथा उनके व्यक्तित्व का एक साथ निदर्शन हो सके ।
एतदनुसार पाँच खण्डों में अन्तर्विभाजित इस स्मृति ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में न्यायाचार्य डॉ० महेन्द्रकुमार जी के स्मृति ग्रन्थ हेतु साधु-सन्तों के शुभाशीष, मनीषियों के आदराञ्जलि-पूर्ण संस्मरण, शिष्यों और समाज नेताओं के प्रणाम सनिविष्ट हैं । श्रृंखलाबद्ध इन उद्गारों में पं० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य के व्यक्तित्व और अप्रतिम वैदुष्य का मूल्यांकन सहज ही हो उठा है।
स्मृति-ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में-पं० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य का जीवन परिचय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व रूपायित है ।
स्मृति-ग्रन्थ के तृतीय खण्ड में-कृतियों की समीक्षाएँ में डॉ० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य की समग्र सारस्वत साधना पर विश्लेषणात्मक चिन्तन की प्रस्तुति के साथ ही साथ उनके बहुचर्चित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों पर तत् तत् विषयों के मर्मज्ञ अधिकारी विद्वानों के द्वारा अभिलिखित समीक्षाएँ सन्निविष्ट हैं ।
इस स्मृति-ग्रन्थ का चतुर्थ खण्ड : विशिष्ट निबन्ध : (स्व०) पं० न्यायाचार्य जी के कृतित्व/ सारस्वत आराधना के पूर्णतः निदर्शक हैं । ये निबन्ध (स्व०) न्यायाचार्य जी के लेखन, जीवन दर्शन और वैदुष्य का सर्वतोभावेन प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी उपादेयता आगे आने वाले समय में भी उतनी ही है/रहेगी जितनी आज है अथवा जब उनका सृजन हुआ था । सम्पादक मण्डल यह अनुभव करता है कि इस सम्पूर्ण चतुर्थ खण्ड में (स्व०) न्यायाचार्य जी का गहन गम्भीर अध्ययन, विषय उपस्थापनपल्लवन और प्रतिपादन की अद्भुत क्षमता, अन्वेषणात्मक सुतीक्ष्ण दृष्टि, एक दार्शनिक/नैयायिक आचार्य के व्यक्तित्व का गौरव, रोचक शैली, प्राञ्जल-परिष्कृत भाषा और कोमल कान्त पदावली तो निदर्शित है ही, इनमें 'सत्यं, शिवं, सुन्दरम' का लक्ष्य भी चरितार्थ हुआ है ।
स स्मृति-ग्रन्थ के पञ्चम खण्ड में-जैन न्यायविद्या का विकास और जैन दार्शनिक साहित्य का कालक्रमानुसार दिग्दर्शन कराया गया है । शोधार्थियों के लिए यह खण्ड विशेष उपयोगी है।
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