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१ - ज्ञान आत्मवेदी होता है ।
३ - ज्ञान अर्थको जानता है । ५ - अर्थ द्रव्यपर्यायात्मक है ।
२- ज्ञान साकार होता है ।
४- अर्थ सामान्यविशेषात्मक है ।
६ - वह ज्ञान प्रत्यक्ष होगा जो परमार्थतः स्पष्ट हो ।
ज्ञानका आत्मवेदित्व - 'ज्ञान आत्माका गुण है या नहीं' यह प्रश्न भी दार्शनिकोंकी चर्चाका विषय रहा है । भूतचैतन्यवादी चार्वाक ज्ञानको पृथ्वी आदि भूतोंका ही धर्म मानता है । वह स्थूल या दृश्य भूतोंका धर्म स्वीकार न करके सूक्ष्म और अदृश्य भूतोंके विलक्षणसंयोगसे उत्पन्न होनेवाले अवस्थाविशेषको ज्ञान कहता है । सांख्य चैतन्यको पुरुषधर्म स्वीकार करके भी ज्ञान या बुद्धिको प्रकृतिका धर्म मानता है । सांख्यके तसे चैतन्य और ज्ञान जुदा-जुदा हैं। पुरुषगत चैतन्य बाह्यपदार्थों को नहीं जानता । बाह्यपदार्थोंको जाननेबुद्धितत्त्व जिसे 'महत्तत्व भी कहते हैं प्रकृतिका ही परिणाम है। यह बुद्धि उभयतः प्रतिबिम्बी दर्पण के समान है । इसमें एक ओर पुरुषगत चैतन्य प्रतिफलित होता है और दूसरी ओर पदार्थों के आकार | इस बुद्धि मध्यम द्वारा ही पुरुषको "मैं घटको जानता हूँ" यह मिथ्या अहंकार होने लगता है ।
४ / विशिष्ट निबन्ध १०५
न्याय-वैशे षक - ज्ञानको आत्माका गुण मानते अवश्य हैं, पर इनके
मत में आत्मा द्रव्यपदार्थं पृथक है तथा ज्ञान गुणपदार्थ जुदा । यह आत्माका यावद्द्रव्यभावी अर्थात् जब तक आत्मा है तब तक उसमें अवश्य रहने वाला - गुण नहीं है किन्तु आत्ममन:संयोग, मन- इन्द्रिय-पदार्थ सन्निकर्ष आदि कारणोंसे उत्पन्न होनेवाला विशेष गुण । जब तक ये निमित्त मिलेंगे, ज्ञान उत्पन्न होगा, न मिलेंगे न होगा । मुक्त अवस्था में मन इन्द्रिय आदिका सम्बन्ध न रहनेके कारण ज्ञानकी धारा उच्छिन्न हो जाती है । इस अवस्थामें आत्मा स्वरूपमात्रमग्न रहता है । तात्पर्य यह कि बुद्धि सुख दुःख आदि विशेष गुण औपाधिक हैं, स्वभावतः आत्मा ज्ञानशून्य है । ईश्वर नामकी एक आत्मा ऐसी है जो अनाद्यनन्त नित्यज्ञानवाली है। परमात्मा के सिवाय अन्य सभी जीवात्माएँ स्वभावतः ज्ञानशून्य हैं ।
वेदान्ती ज्ञान और चैतन्यको जुदा-जुदा मानकर चैतन्यका आश्रय ब्रह्मको तथा ज्ञानका आश्रय अन्तःकरणको मानते हैं । शुद्ध ब्रह्ममें विषयपरिच्छेदक ज्ञानका कोई अस्तित्व शेष नहीं रहता । मीमांसक ज्ञानको आत्माका ही गुण मानते हैं । इनके यहाँ
ज्ञान और आत्मा में तादात्म्य माना
गया है ।
बौद्ध परम्परामें ज्ञान नाम या चित्तरूप है । मुक्त अवस्था में चित्तसन्तति निरास्रव हो जाती है । इस अवस्था में यह चित्तसन्तति घटपटादि बाह्यपदार्थोंको नहीं जानती ।
जैनपरम्परा ज्ञानको अनाद्यनन्त स्वाभाविक गुण मानती है जो मोक्ष दशामें अपनी पूर्ण अवस्थामें रहता है ।
'संसार दशामें ज्ञान आत्मगत धर्म है' इस विषयमें चार्वाक और सांख्यके सिवाय प्रायः सभी वादी एकमत हैं। पर विचारणीय बात यह है कि जब ज्ञान उत्पन्न होता है तब वह दीपककी तरह स्वपरप्रकाशी उत्पन्न होता है या नहीं ? इस सम्बन्धमें अनेक मत हैं - १. मीमांसक ज्ञानको परोक्ष कहता है । उसका कहना है कि ज्ञान परोक्ष ही उत्पन्न होता है। जब उसके द्वारा पदार्थका बोध हो जाता है तब अनुमानसे ज्ञानको जाना जाता है—चूँकि पदार्थका बोध हुआ है और क्रिया बिना करण के हो नहीं सकती अतः करणभूत ज्ञान होना चाहिए । मीमांमकको ज्ञानको परोक्ष माननेका यही कारण है कि इसने अतीन्द्रिय पदार्थका ज्ञान वेदके द्वारा ही माना है । धर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका प्रत्यक्ष किसी व्यक्तिविशेषको नहीं हो सकता । उसका ज्ञान वेदके द्वारा ही हो सकता है । फलतः ज्ञान जब अतीन्द्रिय है तब उसे परोक्ष होना ही चाहिए ।
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