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४ / विशिष्ट निबन्ध : ५९
मिट्टी के ढेले में हमें राग नहीं होता उसी तरह स्त्री आदिसे विरक्त होनेमें चित्तको मदद मिलेगी । इन्हीं पवित्र मुमुक्षुभावनाओंको सुभावित करनेके लिए करुणामय बुद्धके हृदयग्राही उपदेश होते थे । उत्तरकालमें इन मुमुक्षुभावनाओं का लक्ष्य यद्यपि वही रहा पर समर्थनका ढंग बदला । उसमें परपक्षका जोरोंसे खंडन शुरू हुआ तथा बुद्धिति विकल्पजालोंसे बहुविध पन्थों और ग्रन्थोंका निर्माण हुआ । इन बुद्धिवाग्वैभवशाली आचार्योंने बुद्धकी उस मध्यमप्रतिपदाका इस नए क्षेत्रमें जरा भी उपयोग नहीं किया । मध्यमप्रतिपदा शब्दका अपने ढंगसे शाब्दिक आदर तो किया पर उसके प्राणभूत समन्वयके तत्त्वका बुरी तरह कचूमर निकाल डाला । विज्ञानवादियोंने मध्यमप्रतिपदाको विज्ञानस्वरूप कहा तो विभ्रमवादियोंने उसे विभ्रमरूप । शून्यवादियोंने तो मध्यमप्रतिपदाको शून्यताका पर्यायवाची ही लिख दिया है
“मध्यमा प्रतिपत् सैव सर्वधर्मनिरात्मता । भूतकोटिश्च संवेयं तथता सर्वशून्यता ।" -अर्थात् सर्वशून्यताको हो सर्वधर्मनैरात्म्य तथा मध्यमा प्रतिपत् कहते हैं । यही वास्तविक तथा तथ्यरूप है ।
इन अहिंसा के पुजारियोंने मध्यमप्रतिपदाके द्वारा वैदिक संस्कृतिका समन्वय न करके उसपर ऐकान्तिक प्रहार कर पारस्परिक मनोमालिन्य-हिंसाको हो उत्तेजन दिया। इससे वैदिक संस्कृति तथा बौद्ध संस्कृति के बीच एक ऐसी अभेद्य दीवार खड़ी हो गई जिसने केवल दार्शनिक क्षेत्रमें ही नहीं किन्तु राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र में भी दोनोंको सदाके लिए आत्यन्तिक विभक्त कर दिया। इसके फलस्वरूप प्राणोंकी बाजी लगाकर अनेकों शास्त्रार्थं हुए तथा राजनैतिक जीवनमें इस कालकूटने प्रवेशकर अनेकों राजवंशोंका सत्यानाश किया। उत्तरकालमें बौद्धाचार्योंने मन्त्र तन्त्रोंकी साधना और आखिर इसी हिंसाज्वालासे भारतवर्ष में बौद्धोंका अस्तित्व खाक में इस दार्शनिक क्षेत्र में भी अपना पुनीत प्रकाश फैलाया होता तो आज का कुछ दूसरा ही रूप हुआ होता, और भारतवर्षका मध्यकालीन लायक होता ।
इसी हिंसा के उत्तेजनके लिए की मिल गया । यदि मध्यमा प्रतिपद्ने उसकी अहिंसक किरणोंसे दर्शनशास्त्रइतिहास सचमुच स्वर्णाक्षरोंमें लिखा जाने
जैनदृष्टि -- भगवान् महावीर अत्यन्त कठिन तपस्या करनेवाले तपः शूर थे । इन्होंने अपनी उग्र तपस्यासे कैवल्य प्राप्त किया । ये इतने दृढ़तपस्वी तथा कष्टसहिष्णु व्यक्ति थे कि इन्हें बुद्ध की तरह अपनी व्यक्तिगत तपस्यामें मृदुता लानेके लिए मध्यममार्ग के उपयोगकी आवश्यकता ही नहीं हुई। इनकी साधना कायिक अहिंसा सूक्ष्मपालनके साथ ही साथ वाचनिक और खासकर मानस अहिंसाकी पूर्णताकी दिशा में थी । भगवान् महावीर पितृचेतस्क व्यक्ति थे, अतः इनका आचारके नियमोंमें अत्यन्त दृढ़ एवं अनुशासनप्रिय होना स्वाभाविक था । पर संघ में तो पंचमेल व्यक्ति दीक्षित होते थे। सभी तो उग्रमार्ग के द्वारा साधना करने में समर्थ नहीं हो सकते थे अतः इन्होंने अपनी अनेकान्तदृष्टिसे आचारके दर्जे निश्चित कर चतुर्विधसंघका निर्माण किया । और प्रत्येक कक्षाके योग्य आचारके नियम स्थिरकर उनके पालन कराने में ढिलाई नहीं की। भग० महावीरकी अनेकान्तदृष्टिने इस तरह आचारके क्षेत्रमें सुदृढ़ संघनिर्माण करके तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में भी अपना पुनीत प्रकाश फैलाया ।
अनेकान्त दृष्टिका आधार - भगवान् महावीरने बुद्धकी तरह आत्मादि अतीन्द्रिय पदार्थोंके स्वरूपनिरूपणमें मौन धारण नहीं किया; किन्तु उस समय के प्रचलित वादोंका समन्वय करनेवाला वस्तुस्वरूपस्पर्शी उत्तर दिया कि - आत्मा है भी, नहीं भी, नित्य भी, अनित्य भी, आदि । यह अनेकान्तात्मक वस्तुका कथन
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