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४ / विशिष्ट निबन्ध : ४७ सम्बन्धज्ञानको उपमान कहते हैं। जैसे किसी नागरिकने यह सुना कि 'गौके सदृश गवय होता है ।' यह जंगलमें गया । वहाँ गवयको देखकर उसमें गोसादृश्यका ज्ञान करके गवयसंज्ञाका सम्बन्ध जोड़ता है और गवयशब्दका व्यवहार करता है । इसी संज्ञा-संज्ञिसम्बन्धज्ञानको उपमान प्रमाण कहते । अकलंकदेव इस ज्ञानका यथासम्भव अनुमान तथा प्रत्यभिज्ञानमें अंतर्भाव करते हुए कहते हैं कि यदि प्रसिद्धार्थका सादृश्य अविनाभावी रूपसे निर्णीत तब तो वह लिंगात्मक हो जायगा और उससे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान अनुमान कहलायगा । यदि अविनाभाव निर्णीत नहीं है; तो दर्शन और स्मरणपूर्वक सादृश्यात्मक संकलन होने के कारण यह सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमें ही अन्तर्भूत होगा। सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भूत होनेपर भी यदि इस ज्ञानको स्वतंत्ररूपसे उपमान नामक प्रमाण मानोगे; तो भैंसको देखकर 'यह गवय नहीं है' या 'यह गौसे विलक्षण है' इस वैलक्षण्यज्ञानको किस प्रमाणरूप मानोगे ? 'शाखादिवाला वृक्ष होता है' इस शब्दको सुनकर वैसे ही शाखादिमान् अर्थको देखकर 'वृक्षोऽयम्' इस ज्ञानको किस नामसे पुकारोगे ? इसी तरह 'यह इससे पूर्व में है, यह इससे पश्चिममें है', 'यह छोटा है, यह बड़ा है', 'यह दूर है, यह पास है', 'यह ऊँचा है, यह नीचा है', 'ये दो हैं, यह एक है' इत्यादि सभी ज्ञान उपमानसे पृथक् प्रमाण मानने होंगे; क्योंकि उक्त ज्ञानोंमें प्रसिद्धार्थ - सादृश्यको तो गंध भी नहीं है । अतः जिनमें दर्शन और स्मरण कारण उन सभी संकलनरूप ज्ञानोंको प्रत्यभिज्ञान कहना चाहिए, भले ही वह संकलन सादृश्य वैसदृश्य या एकत्वादि किसी भी विषयक क्यों न हो । उक्त सभी ज्ञान हितप्राप्ति, अहितपरिहार तथा उपेक्षाज्ञानरूप फलके उत्पादक होनेसे अप्रमाण तो कहे ही नहीं जा सकते ।
मीमांसक जिस साधनका साध्यके साथ अविनाभाव पहिले किसी सपक्षमें गृहीत नहीं है उस साधनसे तत्कालमें ही अविनाभाव ग्रहण करके होनेवाले साध्यज्ञानको अर्थापत्ति कहते । इससे शक्ति आदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका भी ज्ञान किया जाता है। अकलंकदेवने अर्थापत्तिको अनुमानमें अन्तर्भूत किया है; क्योंकि अविनाभावी एक अर्थसे दूसरे अर्थका ज्ञान अनुमान तथा अर्थापत्ति दोनोंमें समान है । सपक्षमें व्याप्तिका गृहीत होना या न होना प्रमाणान्तरताका प्रयोजक नहीं हो सकता । सम्भव नामका प्रमाण यदि अविनाभावप्रयुक्त है; तो उसका अनुमानमें अन्तर्भाव होगा । यदि अविनाभावप्रयुक्त है; तब तो वह प्रमाण ही नहीं हो सकता । ऐतिह्य नामका प्रमाण यदि आप्तोपदेशमूलक है, तो आगमनामक प्रमाणमें अन्तर्भूत होगा । यदि आप्तमूलत्व संदिग्ध है; तो वह प्रमाणकोटिमें नहीं आ सकता । अभाव नामका प्रमाण यथासम्भव प्रत्यक्ष, प्रत्यभिज्ञान तथा अनुमानादि प्रमाणोंमें अन्तर्भूत समझना चाहिए । इस तरह परपरिकल्पित प्रमाणों का अंतर्भाव होनेपर प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही मूल प्रमाण हो सकते हैं ।
प्रमाणाभास - अविसंवादि ज्ञान प्रमाण है, अतः विसंवादि ज्ञान प्रमाणाभास होगा । यहाँ अकलंकदेवकी एक दृष्टि विशेषरूपसे विचारणीय है । वे किसी ज्ञानको सर्वथा विसंवादि नहीं कहते । वे कहते हैं कि—जो ज्ञान जिस अंशमें अविसंवादि हो वह उस अंशमें प्रमाण तथा विसंवादि-अंश में अप्रमाण होगा । हम किसी भी ज्ञानको एकान्तसे प्रमाणाभास नहीं कह सकते। जैसे तिमिररोगीका द्विचन्द्रज्ञान चन्द्रांशमें अविसंवादी है तथा द्वित्वसंख्या में विसंवादी है, अतः इसे चन्द्रांशमें प्रत्यक्ष तथा द्वित्वांश में प्रत्यक्षाभास कहना चाहिए । इस तरह प्रमाण और प्रमाणाभासकी संकीर्ण स्थिति रहनेपर भी जहाँ अविसंवादकी प्रकर्षता हो वहाँ प्रमाण व्यपदेश तथा विसंवादके प्रकर्ष में प्रमाणाभास व्यपदेश करना चाहिए। जैसे कस्तूरी में रूप, रस आदि सभी गुण मौजूद हैं, पर गन्धकी प्रकर्षता होनेके कारण उसमें 'गन्धद्रव्य' व्यपदेश होता है ।
ज्ञानके कारणोंका विचार - बौद्धके मतसे चार प्रत्ययोंसे चित्त और चंत्तोंकी उत्पत्ति होती है—
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