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२६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
य
और नयमें भेदाभाव नहीं हो सकता । नयान्तरसापेक्षनय यदि प्रमाण हो जाय तब तो व्यवहारादि सभी नयोंको प्रमाण मानना होगा। इस तरह उपाध्यायजीने अककलंके मतका ही समर्थन किया है।
आन्तरिक विषयपरिचय इस परिचयमें अकलंकदेवने प्रस्तुत तीनों ग्रन्थोंमें जिन विषयोंपर संक्षेप या विस्तारसे जो भी लिखा है, उन विषयोंका सामान्य परिचय तथा अकलंकदेवके वक्तव्यका सार दिया है। इससे योग्यभूमिवाले जैनन्यायके अभ्यासियोंका अकलंकके ग्रन्थोंमें प्रवेश तो होगा ही, साथ ही साथ जैनन्यायके रसिक अध्यापकोंको जैनन्यायसे सम्बन्ध रखनेवाले दर्शनान्तरीय विषयोंकी अनेकों महत्त्वपूर्ण चर्चाएं भी मिल सकेंगी। इसमें प्रसंगतः जिन अन्य आचार्योंके मतोंकी चर्चा आई है उनके अवत्तरण देखने के लिए उस विषयके टिप्पणोंको ध्यानसे देखना चाहिए। इस परिचयको ग्रंथशः नहीं लिखकर तोनों ग्रन्थोंके मुख्य-मुख्य विषयोंका संकलन करके लिखा है जिससे पाठकोंको विशेष सुविधा रहेगी। यह परिचय मुख्यतयासे प्रमाण, प्रमेय, नय, निक्षेप और सप्तभंगीरूपसे स्थूल विभाग करके लिखा गया है। १. प्रमाणनिरूपण
प्रमाणसामान्यविचार-समन्तभद्र और सिद्धसेनने प्रमाणसामान्यके लक्षणमें स्वपरावभासक, ज्ञान तथा बाधवर्जित पद रखे हैं, जो उस समयके प्रचलित लक्षणोंसे जैनलक्षणको व्यावृत्त कराते थे । साधारणतया 'प्रमाकरणं प्रमाणम्' यह लक्षण सर्वमान्य था। विवाद था तो इस विषयमें कि वह करण कौन हो? न्यायभाप्यमें करणरूपसे सन्निकर्ष और ज्ञान दोनोंका स्पष्टतया निर्देश है। यद्यपि विज्ञानवादी बौद्ध ज्ञानको स्वसंवेदी मानते रहे हैं, पर वे करणके स्थानमें सारूप्य या योग्यताको रखते हैं। समन्तभद्रादिने करणके स्थानमें स्वपरावभासक ज्ञान पद रखके ऐसे ही ज्ञानको प्रमाण माना जो स्व और पर उभयका अवभासन करनेवाला हो। अकलंकदेवने इस लक्षणमें अविसंवादि और अनधिगतार्थग्राहि इन दो नए पदोंका समावेश करके अवभासकके स्थानमें व्यवसायात्मक पदका प्रयोग किया है। अविसंवादि तथा अज्ञातार्थप्रकाश पद स्पष्टरूपसे धर्मकीर्तिके प्रमाणके लक्षणसे आए हैं तथा व्यवसायात्मक पद न्यायसूत्र से । इनकी लक्षणसंघटनाके अतुसार स्व और परका व्यवसाय-निश्चय करनेवाला, अविसंवादि-संशयादि समारोपका निरसन करनेवाला और अनधिगतार्थको जाननेवाला ज्ञान प्रमाण होगा।
प्रमाणसम्प्लव विचार-यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि धर्मकीर्ति और उनके टीकाकार धर्मोत्तरने अज्ञातार्थप्रकाश और अनधिगतार्थनाहि शब्दोंका प्रयोग करके प्रमाणसम्प्लवका निषेध किया है। एक प्रमेयमें अनेक प्रमाणोंकी प्रवृत्ति को प्रमाणसम्प्लव कहते हैं। बौद्ध पदार्थोंको एकक्षणस्थायी मानते हैं। उनके सिद्धान्तके अनुसार पदार्थ ज्ञानमें कारण होता है। अतः जिस विवक्षित पदार्थसे कोई भी प्रत्यक्षज्ञान उत्पन्न हुआ कि वह पदार्थ दूसरे क्षणमें नियमसे नष्ट हो जाता है। इसलिए किसी भी अर्थ में दो ज्ञानोंके प्रवृत्त होनेका अवसर ही नहीं है। दूसरे, बौद्धोंने प्रमेयके दो भेद किए हैं-१. विशेष ( स्वलक्षण ), २. सामान्य ( अन्यापोहरूप)। विशेष पदार्थको विषय करनेवाला प्रत्यक्ष है तथा सामान्यको जाननेवाले अनुमानादि विकल्पज्ञान । इस तरह विषयद्वैविध्यात्मक व्यवस्था होनेसे कोई भी प्रमाण अपनी विषयमर्यादाको नहीं लाँघ सकता। इसलिए विजातीय प्रमाणको तो स्वनियत विषयसे भिन्न प्रमेयमें प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती। रह जाती है सजातीय प्रमाणान्तरके सम्प्लवकी बात, सो द्वितीय क्षणमें जब वह पदार्थ रहता ही नहीं है तब सम्प्लवकी चर्चा अपने आप ही समाप्त हो जाती है।
यहाँ यह प्रश्न होता है कि-'जैन तो पदार्थको एकान्तक्ष णिक नहीं मानते और न विषयद्वैविध्यको
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