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४ / विशिष्ट निबन्ध : २५
सविवृति लघीयस्त्रयपर प्रभाचन्द्रकी टीका उपलब्ध होनेसे तथा उसका विषय कुछ प्रारम्भिक होनेसे समझने में उतनी कठिनाई नहीं मालम होती जितनी न्यायविनिश्चयमें । प्रमाणसंग्रहमें तो यह कठिनाई अपनी चरमसीमाको पहुँच जाती है। एक ही प्रकरणमें अनेक चर्चाओंका समावेश हो जानेसे तो यह जटिलता और भी बढ़ जाती है। उदाहरणार्थ-न्यायविनिश्चयमें भूतचैतन्यवादका निराकरण करते हुए जहाँ यह लिखा है कि ज्ञान भूतोंका गुण नहीं है, वहीं लगे हाथ गुण शब्दका व्याख्यान तथा वैशेषिकके गुणगुणिभेदका खंडन भी कर दिया है । समझनेवाला इससे विषयके वर्गीकरणमें बड़ी कठिनाईका अनुभव करता है। अकलंकदेवका षड्दर्शनका गहरा अभ्यास तथा बौद्धशास्त्रोंका अतुलभावनापूर्वक आत्मसात्करण ही उनके प्रकरणोंकी जटिलतामें कारण मालम होता है । वे यह सोचते है कि कम-से-कम शब्दोंमें अधिकसे अधिक सूक्ष्म और बहुपदार्थ ही नहीं किन्तु बहुविध पदार्थ लिखा जाय । उनकी यह शब्दसंक्षिप्तता बड़े-बड़े प्रकाण्डपण्डितोंको अपनी बुद्धिको मापनेका मापदण्ड बन रही है । धर्मकीर्तिकी प्रमाणवार्तिक-स्ववृत्तिको देखकर तो यह और भी स्पष्ट मालम होने लगता है कि उस समय कुछ ऐसी ही सूत्र रूपसे लिखने की परम्परा थी। लेखनशैलीमें परिहासका पुट भी कहीं-कहीं बड़ी व्यंजनाके साथ मिलता है, जैसे-न्यायविनिश्चयमें धर्मकीर्तिके-'जब सब पदार्थ द्रव्यरूपसे एक हैं तब दही और ऊँट भी द्रव्यरूपसे एक हुए, अतः दहीको सानेवाला ऊँटको क्यों नहीं खाता ?" इस आक्षेपका उत्तर देते हुए लिखा है कि-भाई, जैसे सुगत पूर्व भवमें मृग थे, तथा मृग भी सुगत हुआ था, अतः सन्तानदृष्टिसे एक होनेपर भी आप मृगकी जगह सुगतको क्यों नहीं खा वन्दना क्यों नहीं करते ? अतः जिस तरह वहाँ पर्यायभेद होनेसे वन्यत्व और खाद्यत्व की व्यवस्था है उसी तरह दही और ऊँटके शरीरमें पुद्गलद्रव्यरूपसे एकता होनेपर भी पर्यायकी अपेक्षा भिन्नता है । यथा
"सुगतोऽपि मृगो जातः मृगोऽपि सुगतस्तथा । तथापि सुगतो वन्द्यो मृगः खाद्यो यथेष्यते ॥ तथा वस्तूबलादेव भेदाभेदव्यवस्थितेः । चीदितो दधि खादेति किमष्टमभिधावति ॥"
-न्यायवि० ३।३७३-७४ अकलंकके प्रकरणोंका सूक्ष्मतासे अनुसंधान करनेपर मालम होता है कि-अकलंकदेवकी सीधी चोट बौद्धोंके ऊपर है। इतरदर्शन तो प्रसंगसे ही चचित है, और उनकी समालोचनामें बौद्धदर्शनका सहारा भी लिया गया है । बौद्धाचार्य धर्मकीतिके प्रमाणवार्तिकसे तो अनेकों पूर्वपक्ष शब्दशः लेकर समालोचित हुए हैं। धर्मकीर्तिके साथ ही साथ उनके शिष्य एवं टीकाकार प्रज्ञाकरगुप्त, कर्णकगोमि प्रभृति भी अकलंकके द्वारा युक्तिजालोंमें लपेटे गये हैं । जहाँ भी मौका मिला सौत्रान्तिक या विज्ञानवादीके ऊपर पूरा-पूरा प्रहार किया गया है। कुमारिलकी सर्वज्ञताविरोधिनी युक्तियाँ प्रबलप्रमाणोंसे खंडित की गई है। जैननिरूपणमें स भद्र, पूज्यपादका प्रभाव होनेपर भी न्यायविनिश्चयमें सिद्धसेन दिवाकरके न्यायावतार तथा लघीयस्त्रयके नयनिरूपणमें सन्मतितर्क के नयकाण्ड तथा मल्लवादिके नयचक्रका भी प्रभाव है। उत्तरकालीन ग्रंथकार अनंतवीर्य, माणिक्यनन्दि, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, शान्तिसूरि, वादिराज, वादिदेव, हेमचन्द्र तथा यशो. विजय आदि सभी आचार्योंने अकलंकके द्वारा प्रस्थापित जैनन्यायकी रेखाका विस्तार किया तथा उनके वाक्योंको बड़ी श्रद्धासे उद्धृतकर अपनी कृतज्ञता प्रकट की है।
अकलंक द्वारा प्रणीत व्यवस्थामें अनुपपत्ति शान्तिसरि तथा मलयगिरि आचार्यने दिखाई है । शान्तिसूरिने जैनतर्कवातिकमें अकलंक द्वारा प्रमाणसंग्रहमें प्रतिपादित प्रत्यक्ष-अनुमान-आगमनिमित्तक त्रिविध श्रुतकी जगह द्विविध-अनुमानज और शब्दज श्रुत माना है। मलयगिरि आचार्यने सम्यग्नयमें स्यात्पदके प्रयोगका इस आधारपर समालोचन किया है कि स्यात पदका प्रयोग करनेसे तो प्रमाण और नयमें कोई भेद नहीं रहेगा। पर इसका उत्तर उ० यशोविजयने गुरुतत्त्वविनिश्चयमें दे दिया है कि-मात्र स्यात् पदके प्रयोगसे प्रमाण
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