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१६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
कर्णकगोमि और अकलंक-धर्मकीर्तिने प्रमाणवातिकके प्रथम-स्वार्थानुमान परिच्छेदपर ही वृत्ति बनाई थी। इस वृत्तिकी कर्णकगोमिरचित टीकाके प्रफ हमारे सामने हैं। कर्णकगोमिके समयका बिलकुल ठीक निश्चय न होनेपर भी इतना तो उनके ग्रन्थ देखनेसे कहा जा सकता है कि-ये मंडनमिश्रके बादके हैं । इन्होंने अनेकों जगह मंडनमिश्रका नाम लेकर कारिकाएँ उद्धृत की है तथा उनका खंडन किया है। इनने प्रमाणवा० स्ववृ० टीका (पृ० ८८) में 'तदुक्तं मण्डनेन' कहकर "आहुविधात प्रत्यक्षं न निषेद्ध विपश्चितः । नैकत्वे आगमस्तेन प्रत्यक्षेण प्रबाध्यते ॥" यह कारिका उद्धृत की है तथा इसका खण्डन भी किया है।
___ मण्डनमिश्रने स्फोटसिद्धि ( पृ० १९३ ) में मो० श्लोकवार्तिक (पृ० ५४२ ) की “वर्णा वा ध्वनयो वापि" कारिका उद्धृत की है, तथा विधिविवेक ( पृ० २७९ ) में तन्त्रवातिक ( २।१।१ ) की 'अभिधाभावनामाहुः कारिका उद्धृत की है। इसलिए इनका समय कुमारिल ( सन् ६०० से ६८०) के बाद तो होना ही चाहिए । वृहती द्वितीयभागकी प्रस्तावनामें इनका समय सन् ६७० से ७२० सूचित किया है, जो युक्तियुक्त है।
अतः मण्डनका उल्लेख करनेवाले कर्णकगोमिका समय ७०० ई० के बाद होना चाहिए । ये प्रज्ञाकरगुप्तके उत्तरकालीन मालम होते हैं। क्योंकि इन्होंने अपनी टीकामें (पृ० १३७ ) 'अलङ्कार एव अवस्तुत्वप्रतिपादनात्' लिखकर वार्तिकालकारका उल्लेख किया है। अतः इनका समय ६९० से पहिले होना संभव ही नहीं है।
अकलंकदेवने प्रमाणसंग्रहमें इनके मतकी भी आलोचना की है । यथा
जब कुमारिल आदिने बौद्धसम्मत पक्षधर्मत्वरूपपर आक्षेप करते हुए कहा कि कृतिकोदयादि हेतु तो शकटोदयादि पक्ष में नहीं रहते, अतः हेतुका पक्षधर्मत्वरूप अव्यभिचारी कैसे कहा जा सकता है? तब इसका उत्तर कर्णकगोमिने अपनी स्ववृत्तिटीकामें इस प्रकार दिया है कि-कालको पक्ष मानकर पक्षधर्मत्व घटाया जा सकता है । यथा-"तदा च स एव कालो धर्मी तत्रैव च साध्यानुमानं चन्द्रोदयश्च तत्सम्बन्धीति कथमपक्षधर्मत्वम् ? [ प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० ११]
अकलंकदेव इसका खंडन करते हुए लिखते हैं कि-यदि कालादिको धर्मी मानकर पक्षधर्मत्व सिद्ध करोगे तो अतिप्रसंग हो जायगा । यथा-"कालादिमिकल्पनायामतिप्रसङ्गः।"-प्रमाणसं० १० १०४
धर्मोत्तर और अकलंक-प्रज्ञाकरकी तरह धर्मोत्तर भी धमकीर्तिके यशस्वी टीकाकार हैं। इन्होंने प्रमाणविनिश्चय, न्यायबिन्दु आदिपर टीका लिखनेके सिवाय कुछ स्वतन्त्र प्रकरण भी लिखे है। न्यायविनिश्चयविवरणकार ( पृ० ३९० B.) के लेखानुसार मालूम होता है कि-अकलंकदेवने न्यायविनिश्चय (का० १६२ ) में धर्मोत्तर ( न्यायवि० टी० पृ० १९) के मानसप्रत्यक्ष विषयक विचारोंकी आलोचना की है। इसी तरह वे न्यायविनिश्चयविवरण ( पृ० २६ B. ) में लिखते हैं कि-चणिमें अकलंकदेवने धर्मोत्तरके ( न्याय बिन्दुटीका पृ० १) आदिवाक्यप्रयोजन तथा शास्त्रशरीरोपदर्शनका प्रतिक्षेप किया है। यह चणि अकलंकदेवकी ही है; क्योंकि-तथा च सक्तं चर्णो देवस्य वचनम्' इस उल्लेखके साथ ही एक श्लोक न्यायविनिश्चयविवरणमें उद्धृत देखा जाता है ( देखो इसी ग्रन्थका परिशिष्ट ९वाँ)। इसी तरह अनन्तवीर्याचार्यने सिद्धिविनिश्चयके अनेक वाक्योंको धर्मोत्तरके खंडन रूपमें स किया है । धर्मोत्तर करीब-करीब प्रज्ञाकरके समकालीन मालूम होते है।
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