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४ / विशिष्ट निबन्ध : १३
५-प्रमाणवार्तिक स्वोपज्ञवृत्तिका "तस्मादेकस्य भावस्य यावन्ति पररूपाणि तावत्यस्तदपेक्षाः तदसम्भविकार्यकारणाः तस्य भेदात् यावत्यश्च व्यावृत्तयः तावत्यः श्रुतयः।" यह अंश अष्टशती (अष्टसह० पृ० १३८) के "ततो यावन्ति पररूपाणि तावन्त्येव प्रत्यात्म स्वभावान्तराणि" इस अंशसे शब्द तथा अर्थदृष्टया तुलनीय है।
६-प्रमाणवातिककी आलोचना तथा तुलनाके लिए उपयोगी अवतरण न्यायविनिश्चयादि ग्रंथोंमें प्रचुर रूपसे पाये जाते हैं। ये सब अवतरण प्रस्तुतग्रंथ त्रयके टिप्पणोंमें संगृहीत किये हैं। देखो-लघी० टि० १० १३१-१३३, १३६-१३९, १४१, १४२, १४६, १४७, १५२ तथा न्यायविनिश्चय टि० पृ० १५५१५७, १५९-१७० में आये हुए प्रमाणवातिकके अवतरण ।
प्रज्ञाकरगुप्त और अकलंक-धर्मकीतिके टीकाकारोंमें प्रज्ञाकरगुप्त एक मर्मज्ञ टीकाकार हैं । ये केवल टीकाकार ही नहीं है किन्तु कुछ अपने स्वतन्त्र विचार भी रखते हैं। इनका समय अभी तक पूर्ण रूपसे निश्चित नहीं है । डॉ. सतीशचंद्र विद्याभूषण उन्हें १०वीं सदीका विद्वान् बताते हैं । भिक्षु राहुल सांकृत्यायनजीने टिबेटियन गुरुपरम्पराके अनुसार इनका समय सन् ७०० दिया है । इनका नामोल्लेख अनन्तवीर्य सिद्धिविनिश्चयटीकामें, विद्यानन्द अष्टसहस्रीमें तथा प्रभाचन्द्र प्रमेयकमलमार्तण्डमें करते हैं। जयन्तभट्टने ( न्यायमं० पृ० ७४) जिनका समय ईस्वी ८वींका मध्य भाग है, इनके वार्तिकालंकारके "एकमेवेदं संवि
विषादाद्यनेकाकारविवर्त पश्यामः तत्र यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम्" इस वाक्यका खण्डन किया है। अतः इनका समय ८वीं सदीका प्रारम्भिक भाग तो होना ही चाहिए। इत्सिगने अपने यात्राविवरणमें एक प्रज्ञागुप्त नामके विद्वान्का उल्लेख करते हुए लिखा है कि-"प्रज्ञागुप्त (मतिपाल नहीं) ने सभी विपक्षी मतोंका खण्डन करके सच्चे धर्मका प्रतिपादन किया।" हमारे विचारसे इत्सिगके द्वारा प्रशंसित प्रज्ञागुप्त दूसरे व्यक्ति नहीं हैं। वे वार्तिकालंकारके रचयिता प्रज्ञाकरगुप्त ही हैं। क्योंकि इनके वार्तिकालंकारमें विपक्ष खण्डनका भाग अधिक है।
इस तरह सन् ६९१-९२ में लिखे गये यात्राविवरणमें प्रज्ञाकरगुप्तका नाम होनेसे ये भी धर्मकीर्तिके समकालीन ही हैं । हाँ, धर्मकीर्ति वृद्ध तथा प्रज्ञाकर युवा रहे होंगे। अतः इनका समय भी करीब ६७० से ७२५ तक मानना ठीक है । यह समय भिक्षु राहुलजी द्वारा सूचित टिबेटियन गुरुपरम्पराके अनुसार भी ठीक बैठता है । प्रज्ञाकरगुप्तके वार्तिकालंकारकी भिक्षु राहुलजी द्वारा की गयी प्रेसकापी पलटनेसे मालम हुआ कि प्रज्ञाकरने मात्र प्रमाणवातिककी टीका ही नहीं की है; किन्तु कुछ अपने स्वतन्त्र विचार भी प्रकट किये हैं । जैसे
१-सुषुप्त अवस्थामें ज्ञानकी सत्ता नहीं मानकर जाग्रत् अवस्थाके ज्ञानको प्रबोध अवस्थाकालीन ज्ञानमें कारण मानना तथा भाविमरणको अरिष्ट-अपशकुनमें कारण मानना । तात्पर्य यह कि-अतीतकारणवाद और भाविकारणवाद दोनों ही प्रज्ञाकरके द्वारा आविष्कृत हैं। वे वार्तिकालंकार में लिखते हैं कि
"अविद्यमानस्य करणमिति कोऽर्थः ? तदनन्तरभाविनी तस्य सत्ता, तदेतदानन्तर्यमुभयापेक्षयापि समानम् । यथैव भूतापेक्षया तया भाव्यपेक्षयापि । नचानन्तर्यमेव तत्त्वे निबन्धनम्, व्यवहितस्यापि कारणत्वात् ।
गाढसुप्तस्य विज्ञानं प्रबोधे पूर्ववेदनात् । जायते व्यवधानेन कालेनेति विनिश्चितम ।। तस्मादन्वयव्यतिरेकानुबिधायित्वं निबन्धनम् । कार्यकारणभावस्य तद्भाविन्य पि विद्यते ।। भावेन च भावो भाबिनापि लक्ष्यत एव । मृत्युप्रयुक्तमरिष्टमिति लोके व्यवहारः, यदि ।
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